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[ पवयणसारो यकसम्बन्धो नास्ति। ततः कारणात्समस्तपरद्रव्यममत्वरहितो भूत्वा परमशाम्य लक्षणे निजशुन्द्वात्मनि तिष्ठामीति । किंच 'उपसंपयामि सम्म' इत्यादि स्वकीयप्रतिजा निर्वाड यन्स्वयमपि मोक्षमार्गपरिणति स्वीकरोत्येवं यदुक्त गाथापातनिका प्रारम्भे तेन किमुक्त भवति-ये तां प्रतिज्ञा गृहीत्वा सिद्धिगतास्तैरेव सा प्रतिज्ञा वस्तुवृत्त्या समाप्ति नीता। कुन्दकुन्दाचार्यदेवैः पुनर्ज्ञानदर्शनाधिकारद्वयरूपग्नन्थसमाप्तिरूपेण समाप्ति नीता । शिवकुमारमहाराजेन तु तद्ग्रन्थ श्रवणेन च । कस्मादिति चेत् ? ये मोक्षं गतास्तेषां सा प्रतिज्ञा परिपूर्णा जाता । न चैतेषां, कस्मात् ? चरमदेहत्वाभावादिति ।।२०।।
एवं ज्ञानदर्शनाधिकारसमाप्तिरूपेण चतुर्थस्थले गाथाद्वयं गतम् ।
उत्थानिका--आगे प्रथम ज्ञानाधिकार की पांचवीं गाथा में आचार्य ने कहा था कि "उवसंपयामि सम्म जुत्तो णिवाणसंपत्ती" मैं साम्यभाव को धारण करता हूं जिससे निर्वाण की प्राप्ति होती है, उसी अपनी पूर्व प्रतिज्ञा का निर्वाह करते हुए स्वयं ही मोक्षमार्ग की परिणति को स्वीकार करते हुए कहते हैं
अन्वय सहित विशेषार्थ-(तम्हा) इसलिये (तह) तिसही प्रकार (सहावेण) अपने स्वभाव से (जाणगं) ज्ञायक मात्र (अप्पाणं) आत्मा को (जाणित्ता) जानकर (हिम्मत्तम्हि) ममतारहित भाव में (उठ्ठिदो) ठहरा हुआ (ममत्ति) ममता भाव को (परिवज्जामि) मैं दूर करता हूँ। षयोंकि पहले कहे हुए प्रमाण शुद्धात्मा के लाभ रूप मोक्षमार्ग के द्वारा जिन, जिनेन्द्र तथा महामुनि सिद्ध हुए हैं इसलिये मैं भी उसी ही प्रकार से सर्व रागादि विभाव से रहित शुद्ध बुद्ध एक स्वभाव के द्वारा उस केवलज्ञानादि अनंतगुण स्वभाव के धारी अपने ही परमात्मा को जान करके सर्व पर द्रव्य सम्बन्धी ममकार अहंकार से रहित होकर निर्ममता लक्षण परम साम्यमान नाम के वीतरागचारित्र में अथवा उस चारित्र में परिणमन करने वाले अपने शुद्ध आत्म स्वभाव में ठहरा हुआ सर्व चेतन अचेतन व मिश्र रूप परद्रव्य सम्बन्धी ममता को सब तरह से छोड़ता हूँ। भाव यह है कि मैं केवलज्ञान तथा केवलदर्शन स्वभाव रूप से ज्ञायक एक टंकोत्कीर्ण स्वभाव हूँ ऐसा होता हुआ मेरा परद्रव्यों के साथ अपने स्वामीपने आदि का कोई सम्बन्ध नहीं है मात्र ज्ञेय ज्ञायक सम्बन्ध है, सो भी व्यवहारनय से है निश्चय से यह ज्ञेय ज्ञायक सम्बन्ध भी नहीं है। इस कारण से मैं सर्व परब्रव्यों के ममत्व से रहित होकर परम समता लक्षण अपने शुद्धात्मा में ठहरता है। श्री कुन्दकुन्द महाराज ने "उवसंपयामि सम्म" मैं समताभाव को आश्रय करता हूँ इत्यादि अपनी को हुई प्रतिज्ञा का निर्वाह करते हये स्वयं ही मोक्षमार्ग की परिणति को स्वीकार किया है ऐसा जो गाथा की पातनिका के प्रारम्भ में कहा गया है उससे यह भाव प्रगट होता है कि जिन महात्माओं ने उस प्रतिज्ञा को लेकर सिद्धि पाई है उन्हीं के द्वारा