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[ पवयणसारो भूमिका—अब, साम्य को प्राप्त करता हूँ ऐसी (पांचवीं गाथा में की गई) पूर्व प्रतिज्ञा का निर्वाह करते हुए (आचार्यदेव) स्वयं भी मोक्षमार्गभूत शुद्वात्म प्रवृत्ति करते हैं
अन्वयार्थ—[तस्मात् ] इस कारण (अर्थात् शुद्धात्मा में प्रवृत्ति के द्वारा ही मोक्ष होता है, इस कारण) से [तथा] उसी प्रकार [आत्मानं] आत्मा को [स्वभावेन ज्ञायकं] स्वभाव से ज्ञायक [ज्ञात्वा] जानकर [निर्ममत्वे उपस्थितः] मैं निर्ममत्व में स्थित रहता हुआ [ममता परिवर्जयामि] ममता का परित्याग करता हूं।
टीका-मैं यह मोक्षाधिकारी, जायफस्वभावी आत्मतत्व के परिज्ञानपूर्वक ममत्व को त्यागरूप और निर्ममत्व को ग्रहणरूपी विधि के द्वारा सर्व आरम्भ (उद्यम) से शुद्धात्मा में प्रवृत्त होता है, क्योंकि अन्य कृत्य का अभाव है । (अर्थात् दूसरा कुछ भी करने योग्य नहीं है)। वह इस प्रकार है (अर्थात मैं इस प्रकार शुद्धात्मा में प्रवृत्त होता हूँ)-प्रथम तो मैं स्वभाव से ज्ञायक ही हूं, केवल ज्ञायक हाने से भरा विश्व (समस्त पदार्थो) के साथ भी सहज ज्ञेयज्ञायक लक्षण सम्बन्ध ही है, किन्तु अन्य स्वस्वामिलक्षणादि सम्बन्ध नहीं है। इसलिये मेरा किसी के प्रति ममत्व नहीं हैं, सर्वत्र निर्ममत्व ही है।
अब, (१) एक ज्ञायकभाव का समस्त ज्ञेयों को जानने का स्वभाव होने से, क्रमशः प्रवर्तमान, अनन्त भूत, वर्तमान, भावी विचित्र पर्याय समूह वाले, अगाध स्वभाव और गम्भीर समस्त द्रव्यमान को-मानों वे द्रव्य ज्ञायक में उत्कीर्ण हो गये हों, चित्रित हो गये हों, भीतर घुस गये हों कोलित हो गये हों, डूब गये हों, समा गये हों, प्रतिबिम्बिस हो गये हों,-एक क्षण में ही जो (शुद्धात्मा) प्रत्यक्ष करता है, (२) ज्ञेय ज्ञायक लक्षणरूप संबन्ध की अनिवार्यता के कारण ज्ञेय-जायक को भिन्न करना अशक्य होने से, विश्वरूपता को प्राप्त होता हुआ भी जो (शुद्धात्मा) सहज अनन्तशक्ति वाले ज्ञायक स्वभाव के द्वारा एकरूपता को नहीं छोड़ता, (३) जो अनादि संसार में इसी स्थिति में (ज्ञायकभावरूप हो) रहा हैं, और (४) जो मोह के द्वारा दूसरे रूप में जाना माना जाता हैं, उस शुद्धात्मा को यह मैं, मोह को उखाड़ फेककर, अतिनिष्कम्प रहता हुआ, यथास्थित (जैसा का तैसा) ही प्राप्त करता हूँ।
इस प्रकार दर्शनविशुद्धि जिसका मूल है ऐसी, सम्यग्ज्ञान में उपयुक्तता के कारण अत्यन्त अभ्याबाध (निविघ्न) लीनता होने से, साधु होने पर भी साक्षात् सिद्धभूत निज आत्मा को तथा सिद्धभूत परमात्माओं का, उसी में परायणता जिसका एफ लक्षण है ऐसा भाव नमस्कार सदा ही स्वयमेव हो ॥२००॥