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पवषणसारो
को अपनी प्रसिद्धि, पूजा, लाभादि सर्व मनोरथ जाल से रहित विशुद्ध आत्मा होता हुआ ध्याता है सो ऐसा गुणी जीव शुद्धात्मा की रुचि को रोकने वालो दर्शनमोह की खोटी गांठ को क्षय कर डालता है। इससे सिद्ध हुआ कि जिनको निज आत्मा का लाभ होता है उन्हीं की मोह की गाँठ नाश हो जाती है। यही फल है ।।१६४ ॥
अथ मोग्रन्थिभेदात्किस्यादिति निरूपयति
जो हिदमोहगंठी रागपदोसे खवीय सामण्णे ।
होज्जं समसुहदुक्खो सो सोक्खं अवखयं लहवि ॥ १६५ ॥ यो निहतमोग्रन्थि रागद्वेषी क्षपयित्वा श्रामण्ये |
भवेत् समसुखदुःखः स सौख्यमक्षयं लभते ॥ १६५॥
मोहग्रन्यिक्षपणाद्धि तन्मूलरागद्वेषक्षपणं ततः समसुखदुःखस्य परममाध्यस्थ लक्षणे श्रामण्ये भवनं ततोऽना कुलत्थल क्षणाक्ष पसौख्यलाभः | अतो मोहग्रन्थिभेदादक्षय सौख्यं फलम् ।। १६५।।
भूमिका – अब, यह कहते हैं कि मोहग्रन्थि के टूटने से क्या होता है—
अन्वयार्थ – [ यः ] जो [निहतमोग्रंथि ] मोहग्रंथि को नष्ट करके, [ रागद्वेष क्षपयित्वा ] रागद्वेष का क्षय करके, [ समसुख-दुःख ] सुख-दुख में समान होता हुआ [ श्रामण्ये भवेत् ] श्रमणता ( मुनित्र ) में परिणमित होता है, [सः ] वह [ अक्षयं सौख्यं ] अक्षय सौख्य को [ लभते ] प्राप्त करता है ।
टीका — मोहग्रन्थि का क्षय करने से, मोहग्रन्थि जिसका मूल है ऐसे राग द्वेष का, क्षय होता है, उससे, जिसे सुख-दुःख समान हैं ऐसे जीव का परम मध्यस्थता जिसका लक्षण है ऐसी श्रमणता में परिणमन होता है, और उससे अनाकुलता जिसका लक्षण है ऐसे अक्षय सुख की प्राप्ति होती है ।
इससे ( यह कहा है कि मोहरूपी ग्रन्थि के छेदने से अक्षय सौख्यरूप फल होता है ॥ १६५॥
तात्पर्यवृत्ति
अथ दर्शन मोहग्रन्थिभेदादिक भवतीति प्रश्ने समाधानं ददाति
जो विमोहगंठी यः पूर्वसूत्रोक्तप्रकारेण निहतदर्शन मोहग्रन्थिर्भूत्वा रागपदोसे खवीय निजशुद्धात्मनिश्चलानुभूतिलक्षणवीत रागचारित्रप्रतिबन्धको चारित्रमोहसंज्ञौ रागद्वेषौ क्षपयित्वा । क्व ? सामण्णे स्वस्वभावलक्षणे श्रामण्ये | पुनरपि किं कृत्वा ? होज्जं भूत्वा किंविशिष्टः ? समसुहदुक्खो निजशुद्धात्मसंवित्तिसमुत्पन्न रागादिविकल्पोपाधिरहितपरमसुखामृतानुभवेन सांसारिक सुखदुःखोत्पन्नहर्ष