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[ पवयणसारो
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केवलज्ञानी महामुनि ( कम्मट्ठे ) किस पदार्थ को (शादि ) ध्याते हैं। पूर्व सूत्र में कहे प्रमाण निश्चल अपने परमात्म-तत्त्व में परिणमनरूप शुद्ध ध्यान के बल से घातिया कर्मों के क्षयकर्ता, प्रत्यक्षज्ञानी, सब ज्ञेयों को जानने को अपेक्षा उनके पार होने वाले ऐसे तीन विशेषण सहित जीवन मरण आदि में समताभाव रखने वाले महाश्रमण श्री सर्वज्ञ भगवान जो संशयादि से रहित हैं वह किस पदार्थ को ध्याते हैं ? यह प्रश्न है अथथा किसी पदार्थ को भी नहीं ध्याते हैं यह आक्षेप हैं।
यहां यह अर्थ है कि जैसे कोई भी देवदत्त विषयों के सुख के निमित्त किसी विद्या की आराधना रूप ध्यान को करता है जब वह सिद्ध हो जाती है तब उस विद्या के फलरूप विषय सुख को सिद्ध कर लेता है फिर उस विद्या की आराधना रूप ध्यान को नहीं करता है । तैसे ही भगवान् भी केवलज्ञानं रूपो विद्या के निमित्त तथा उसके फलरूप अनन्त सुख के निमित्त पहले छद्मस्य अर्थात् अल्पज्ञ की अवस्था में शुद्ध आत्मा की भावना रूप ध्यान को करते थे अब उस ध्यान से केवलज्ञानरूपी विद्या सिद्ध हो गई तथा उसका फलरूप अनन्त सुख धोति हो गया तंत्र किस लिये ध्यान करते हैं, ऐसा प्रश्न है या आक्षेप है ? दूसरा कारण यह है कि पदार्थ परोक्ष होने पर उसका ध्यान किया जाता है, भगवान् के सर्व प्रत्यक्ष है, तब उनके ध्यान किस तरह हो सकता है, ऐसा पूर्वपक्ष करते हुए गाथा पूर्ण हुई ॥१६७॥
अर्थतनुपलब्धशुद्धात्मा सकलज्ञानी ध्यायतीत्युत्तरमासूत्रयति - सव्वाबाधविजुत्तो समंतसव्वक्ख सोक्खणाणड्ढो ।
भूदो अक्खातीदो शादि अणक्खो परं सोक्ख ॥। १६८ ।।
सर्वाबाधवियुक्तः समन्तसर्वाक्षसौख्यज्ञानाढ्यः ।
भूतोऽक्षातीतो ध्यायत्यनक्षः परं सौख्यम् ॥१६८॥
अयमात्मा यदेव सहज सौख्यज्ञान बाधायतनानामसायं दिवकास कल पुरुष सौश्यज्ञानायतनानां चाक्षाणामभावात्स्वयमनक्षत्वेन वर्तते तदैव परेषामक्षातीतो भवन् निराबाधसहअसौख्यज्ञानत्वात् सर्वाबाधवियुक्तः सार्वदिक्कसकल पुरुषसौख्य ज्ञान पूर्णत्वात्समन्त सर्वाक्षसौख्यज्ञानादयश्च भवति । एवंभूतश्च सर्वाभिलावजिज्ञासा संदेहासं भवेऽप्य पूर्व मनाकुलत्वलक्षणं परमसौख्यं ध्यायति । अनाकुलत्व संगतैकाग्र संचेतनमात्रेणावतिष्ठत इति यावत् । ईदृशमवस्थानं च सहजज्ञानानन्दस्वभावस्य सिद्धत्वस्य सिद्धिरेव ॥१६८॥
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