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पवयणसारो ।
[ ४५६ विषादरहितत्वात्समसुखदुःखः । सो सोक्खं अक्खयं लहदि स एवं गुणविशिष्टो भेदज्ञानी सौख्यमक्षयं लभते। ततो ज्ञायते दर्शनमोहक्षयाच्चारित्रमोहसंज्ञरागद्वेषविनाशतश्च सुखदुःखमाध्यस्थ्यलक्षणश्रामण्येऽवस्थानं तेनाक्षयसुखलाभो भवतीति ॥१६५।।
उत्थानिका-आग दर्शनमोह की गांठ टूटने से क्या होता है ? इस प्रश्न का समाधान करते हैं
___अन्वय सहित विशेपार्थ-(जो) जो कोई (णिहदमोहगंठी) दर्शनमोह की गाँठ को क्षय करके (सामण्णे) मुनि अवस्था में रहकर (रागपदोसे) रागद्वेषों को (खवीय) नाश करके (समसुहदुषखो होज) सुखदुःख में समताभाव रखने वाला हो जाता है (सो) वह ज्ञानी जीव (अक्खयं सोक्खं ) अधिनाशी आनन्द को (लहदि) प्राप्त करता है। जो कोई पूर्व सूत्र में कहे प्रकार से दर्शनमोह को गांठ को क्षय करके निश्चय से अपने स्वभाव में ठहरकर अपने शुद्ध आत्मा के निश्चय अनुभव स्वरूप सामारि को रोकने वाले चारित्रमोहरूप रागद्वेषों को नाश करके अपने शुद्ध आत्मा के स्वानुभव से उत्पन्न रागादि विकल्पों से रहित जो परमसुख उसके अनुभव से तृप्त होकर सांसारिक सुख व दुःख से उत्पन्न हर्ष विषाद से रहित होने के कारण से सुख-दुःखों में समताभाव रखता है, वह ऐसा गुणवान भेदज्ञानी जीव अक्षय सुख का लाभ करता है। इससे जाना जाता है कि दर्शनमोह के नाश से फिर चारित्रमोहरूप रागद्वेषों को विनाश करके सुख-दुःख में माध्यस्थ लक्षणधारी मुनिपद में जो ठहरना है उसी से ही अक्षयसुख का लाभ होता है ॥१६॥
अर्थकाग्रयसंचेतनलक्षणं ध्यानमशुद्धत्वमात्मनो नावहतीति निश्चिनोति-- जो खविदमोहकलुसो विसयविरत्तो मणो णिरु भित्ता। समवविदो सहावे सो अप्पाणं हवदि झादा ॥१६६॥
___ यः क्षपितमोहकलषो विषयविरक्तो मनो निरुध्य ।।
समवस्थितः स्वभावे स आत्मानं भवति ध्याता ।।१६६॥ आत्मनो हि परिक्षपितमोहकलुषस्य तन्मूलपरद्रव्यप्रवृत्त्यमावाद्विषविरक्तत्वं स्यात्, ततोऽधिकरणभूतद्रव्यान्तराभावावधिमध्यप्रवतंकपोतपतत्रिण एव अनन्यशरणस्य मनसो निरोधः स्यात् । ततस्तन्मूलचञ्चलत्वविलयादनन्तसहजचैतन्यात्मनि स्थमावे समवस्थान स्यात् । तत्तु स्वरूपप्रवृत्तानाकुलैकाग्रसंचेतनत्वात् ध्यानमित्युपगीयते । अतः स्वभावावस्थानरूपत्वेन ध्यानमात्मनोऽनन्यत्वात् नाशुद्धत्वायेति ॥१६६।।