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[ पवयणसारो ध्रुव है । सर्व प्रकार से पवित्र शरीर रहित परमात्मा से विलक्षण औदारिक आदि पांच प्रकार के शरीर तथा पंचेन्द्रियों के भोग के उपयोग साधक धन आदिक परदथ्य इस जीव के लिये ध्रुव नहीं है किन्तु ये अनित्य हैं, छूट जाने वाले हैं । केवल शरीरादि ही अनित्य नहीं है किन्तु विकाररहित परमानन्दमयी एक लक्षणधारी अपने ही आत्मा से उत्पन्न सुखामृत से विलक्षण सांसारिक सुख तथा दुःख तथा शत्र मित्र आदि जनसमुदाय ये सब भी अनित्य हैं । जब ये सब अधूथ हैं तब ध्रव क्या है ? इसके उत्तर में कहते हैं कि तीन लोक के उदर में विद्यमान भूत भविष्य वर्तमान तीन काल के सर्व द्रव्य गुण पर्यायों को एक साथ जानने में समर्थ केवलज्ञान तथा केवलदर्शनमयो अपना आत्मा ही शाश्वत अविनाशी है। ऐसे अपने से मिन्न सर्व सम्बन्ध को अध्रुव जान करके ध्रुध-स्वभावधारी अपने ही आत्मा में निरन्सर भावना करनी योग्य है, यह तात्पर्य है ॥१३॥
इस तरह अशुद्ध नय के आलम्बन से अशुद्ध आत्मा का लाभ होता है ऐसा कहते हुए पहली गाथा, शुद्ध नय से शुद्ध आत्मा का लाभ होता है ऐसा कहते हुए दूसरी, ध्रुव होने से आत्मा ही भावने योग्य है ऐसा कहते हुए तीसरी, तथा आत्मा से अन्य सब अध्रुव हैं उनकी भावना न करनी चाहिये ऐसा कहते हुए चौथी, इस तरह शुद्धात्मा के व्याख्यान की मुख्यता करके पहले स्थल में चार गाथाएं पूर्ण हुई । अर्थवं शुद्धात्मोपलम्भात्कि स्यादिति निरूपयति
जो एवं जाणित्ता झादि परं अप्पगं विसुद्धप्पा । सागारोऽणागारो खवेदि सो मोहदुग्गाँठं ।।१६४॥
य एवं ज्ञात्वा ध्यायति परमात्मानं विशुद्धात्मा ।
साकारोऽनाकार: क्षपयति स मोह्दुर्रन्थिम् ॥१६४॥ अमुना यथोदितेन शुद्धात्मानं ध्रुवमधिगच्छत्तस्तस्मिन्नेव प्रवृत्तेः शुद्धात्मत्वं स्यात् । ततोऽनन्तशक्तिचिन्मात्रस्य परमस्यात्मन एकाग्रसंचेतनलक्षणं ध्यानं स्यात्, ततः साकारोफ्युक्तस्यानाकारोपयुक्तस्य वाविशेषेणकानचेतनप्रसिद्धरासंसारबद्ध ढतरमोहदुग्रंन्थेरुद्ग्रथनं स्यात् । अतः शुद्धात्मोपलम्भस्य मोहनन्थिमेवः फलम् ॥१६॥
भूमिका-इस प्रकार शुद्धात्मा की उपलब्धि से क्या होता है, यह अब निरूपण करते हैं
अन्वयार्थ-[यः] जो एवं [ज्ञात्वा] ऐसा जानकर [विशुद्धात्मा] विशुद्धात्मा