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[ पवयणसारो उत्थानिका-आगे इसी ही भेदविज्ञान को अन्य तरह से दृढ़ करते हैं
अन्वय सहित विशेषार्थ-(जो) जो कोई (सहा) निज स्वभाव को (आसेज्ज) आश्रय करके (पर अप्पाणं एव) पर को और आत्मा को इस तरह भिन्न-भिन्न (णवि जाणवि) नहीं जानता है वही (मोहावो) मोह के निमित्त से (अहं ममेदंत्ति) 'मैं इस पर रूप हूँ या यह पर मेरा है ऐसा (अज्मवसाणं कीरवि) अध्यवसान करता है। जो कोई शुद्धोपयोग लक्षण निज स्वभाव को आश्रय करके पूर्व में कहे प्रमाण छः काय के जीव समूहादि परद्रयों को और निर्दोष परमात्मद्रव्य स्वरूप निज आत्मा को भिन्न-भिन्न नहीं जानता है वह ममकार व अहंकार आदि से रहित परमात्मा की भावना से रहित मोह के अधीन होकर यह परिणाम किया करता है कि मैं रागावि परद्रयरूप हूँ या यह शरीरादि मेरा है। इससे यह सिद्ध हुआ कि इस तरह के स्वपर के भेदविज्ञान के बल से स्वसंवेदन जानी जीच अपने आत्म-द्रव्य में प्रीति करता है और परद्रव्य से निवृत्ति करता है ॥१८३।। - . इस तरह भेद भावना के कथन की मुख्यता करके यो सूत्रों में पांचमा स्थल पूर्ण हुआ। अथात्मनः कि कति निरूपयति
कुव्वं सभावमादा हदि हि कता सगस्स भावस्स । "पोग्गलदव्वमयाणं ण दुकत्ता सव्वभावाणं ॥१८४॥ कुर्वन् स्वभावमात्मा भवति हि कर्ता स्त्रकस्य भावस्य ।
पुद्गलद्रव्यमयानां न तु कर्ता सर्वभावानाम् ।। १८४।। आत्मा हि तावत्स्वं भावं करोति तस्य स्वधर्मवादात्मनस्तथामवनशक्तिसंभवेनावश्यमेव कार्यत्वात् । स तं च स्वतन्त्रः कुर्वाणस्तस्य कविश्यं स्यात्, क्रियमाणश्चात्मना स्वो मावस्तेनाप्यत्वात्तस्य कर्मावश्यं स्यात् । एवमात्मनः स्थपरिणामः कर्म न त्वात्मा पुद्गलस्य भावान् करोति तेषां परधर्मत्वादात्मनस्तथाभवनशक्यसंभवेनाकार्यत्वात् स तानकुर्वाणो न तेषां कर्ता स्यात् अक्रियमाणाश्चात्मना ते न तस्य कर्म स्युः । एवमात्मनः पुद्गलपरिणामो न कर्म ॥१४॥
भूमिका-अब, यह निरूपण करते हैं कि आत्मा का कर्म क्या है
अन्वयार्थ-[स्वभावं कुर्वन् ] अपने भाव को करता हुआ [आत्मा] आत्मा [हि] वास्तव में [स्वकस्य भावस्य] अपने भाव का [कर्ता भवति ] कर्ता है, [तु] परन्तु [पुद्गलद्रव्यमयानां सर्व-भावानां] पुद्गल द्रव्यमय सर्व भावों का [कर्ता न] कर्ता नहीं है।
१. सहावमादा (ज० ७०)। . पुग्गलदश्वमयाणं (ज० ७०) ।