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[ पवयणसारो
अपने शुद्ध आत्मा की भावना रागादि के विनाश होने पर
विकल्पजाल को त्याग कर रागादि के विनाश के लिये करेगा । इस भावना से ही रागादि भावों का नाश होगा, आत्मा शुद्ध होगा । इसलिये परम्परा से शुद्धात्मा का साधक होने से इस अशुद्धनय को भी उपचार से शुद्धनय कहते हैं, यह वास्तव में निश्चयनय नहीं कहा गया है तैसे हो उपचार से इस अशुद्धनय को उपादेय कहा है, यह अभिप्राय है ।। १८६ ॥
इस तरह आत्मा अपने परिणामों का ही कर्ता है, द्रव्य कर्मों का कर्ता नहीं है इस कथन की मुख्यता से सात गाथाओं में छठा स्थल पूर्ण हुआ । इस तरह "अरसमरूव" इत्यादि तीन गाथाओं से पूर्व में शुद्धात्मा का व्याख्यान करके शिष्य के प्रश्न के होने पर कि 'अमूर्त आत्मा का मूर्तिक कर्म के साथ किस तरह बंध हो सकता है।' इसके समाधान को करते हुए नय बिभाग से बंध समर्थन की मुख्यता से उन्नीस गाथाओं के द्वारा छः स्थलों से तीसरा विशेष अन्तर अधिकार समाप्त हुआ ।
इसके आगे बारह गाथा तक चार स्थलों से शुद्धात्मानुभूति लक्षण विशेष भेद भावना रूप चूलिका का व्याख्यान करते हैं । वहां शुद्धात्मा की भावना की प्रधानता करके "ण चयदि जो दु ममत्त" इत्यादि पाठक्रम से पहले स्थल में गाथाएं चार हैं। फिर शुद्धात्मा की प्राप्ति की भावना के फल से दर्शनमोह की गांठ नष्ट हो जाती है तैसे ही चारित्रमोह की गांठ नष्ट होती है व क्रम से दोनों का नाश होता है, ऐसे कथन को मुख्यता से "जो एवं जाणित्ता" इत्यादि दूसरे स्थल में गाथाएं तीन हैं फिर केवली के ध्यान का उपचार है ऐसा कहते हुए "दिघणघाइकम्मो" इत्यादि तीसरे स्थल में गाथाएं दो हैं । फिर दर्शनाधिकार के संकोच की प्रधानता से "एवं जिणा जिणिदा" इत्यादि चौथे स्थल में गाथा दो हैं । पश्चात् "दसणसंसुद्धाणं" इत्यादि नमस्कार गाथा है। इस तरह बारह गाथाओं से चार स्थलों में विशेष अन्तराधिकार में समुदायपातनिका है ।
अथाशुद्धनयादशुद्धात्मलाभ एवेत्यावेदयति-
ण चर्यादि जो दु ममत्त अहं ममेदं ति देहदविणेसु ।
सो सामण्णं चत्ता पडिवण्णो होदि उम्मग्गं ॥ १६० ॥ न त्यजति यस्तु ममतामहं ममेदमिति देद्रविणेषु ।
स श्रामण्यं त्यक्त्वा प्रतिपन्नो भवत्युन्मार्गम् ॥ १६० ॥ यो हि नाम शुद्धद्रव्यनिरूपणात्मकनिश्चयनयनिरपेक्षोऽशुद्धद्रव्य निरूपणात्मकव्यवहारनयोपजनित मोहः सन् अहमिदं ममेदमित्यात्मात्मीयत्वेन देहद्रविणावों परद्रव्ये ममत्वं