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[ पवयणसा
भूमिका- अब निश्चय और व्यवहार का अवरोध बतलाते हैं-
अन्वयार्थ – [ एषः ] यह (पूर्वोक्त प्रकार से ) [ जीवानां ] जीवों के [बंधसमासः ] बंध का संक्षेप कथन [निश्चयेन ] निश्चय से [ अर्हद्भिः ] अर्हन्त भगवान ने [ यतीनां ] यतियों को [ निर्दिष्टः | कहा है, [ अन्यथा ] अन्य प्रकार से ( जो कथन है, वह ) [ व्यवहारः ] व्यवहार है, ( ऐसा जिनेन्द्र ने ) [ भणितः ] कहा है ।
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टीका- राजपरिणाम ही आत्मा का कर्म हैं, वही पुण्य-पाप रूप द्वैत है, आत्मा रागपरिणाम का ही कर्ता है, उसी का ग्रहण करने वाला है और उसी का त्याग करने वाला है - यह शुद्ध द्रव्य के निरुपण स्वरूप निश्चयनय है। पुद्गल परिणाम आत्मा का कर्म है, वही पुण्य-पाप रूप द्वैत है, आत्मा पुद्गल परिणाम का कर्ता है, उसका ग्रहण करने वाला और छोड़ने वाला है, जो ( यह कथन है) वह अशुद्ध द्रव्य के निरुपण स्वरूप व्यवहारनध है। यह दोनों हो ( नय) हैं, क्योंकि शुद्धतया और अशुद्धतया दोनों प्रकार से द्रव्य की प्रतोति की जाती है किन्तु यहाँ निश्चयनय साधकतम ( उत्कृष्टसार्थक ) होने से ग्रहण किया गया है, (क्योंकि) साध्य के शुद्ध होने से द्रव्य के शुद्धत्व का द्योतक (प्रकाशक) होने से निश्चयनय ही साधकतम है, किन्तु अशुद्धत्व का द्योतक व्ययहारनय (साधकतम) नहीं है ॥ १६६ ॥
तात्पर्यवृत्ति
अथ निश्चय व्यवहारयोरविरोधं दर्शयति
एसो बंधसमासो एष बन्धसमासः एष बहुधा पूर्वोक्तप्रकारो रागादिपरिणतिरूपो बन्धसंक्षेपः केषां सम्बन्धी ? जीवाणं जीवानाम् ? णिच्छयेण मिद्दिट्ठो निश्चयेन निद्दिष्टः कथितः ? कैः कर्तृभूतं ? अरहंतेहि अर्हद्भि निर्दोषपरमात्मभिः ? केषाम् ? जद णं जितेन्द्रियत्वेन शुद्धात्मस्वरूपे मनपराणां गणधर देवादियतीनाम् । बवहारो द्रव्यकर्म रूपव्यवहारबन्धः अण्णा भणिदो निश्चयनयापेक्षयान्यथा व्यवहारनयेनेति भणितः । किन्त्र रागादीनेवात्मा करोति तानेव भुंक्ते चेति निश्चयनयलक्षणमिदम् । अयं तु निश्चयनयो द्रव्यकर्मबन्धप्रतिपादकास भूतव्यबहारन यापेक्षया शुद्धद्रव्यनिरूपणात्मको -विवक्षित निश्चय नयस्तथैवाशुद्धनिश्चयश्च भण्यते । द्रव्यकर्माण्यात्मा करोति भुंक्ते चेत्यशुद्धद्रव्यनिरूपणात्मका सद्भूतव्यवहारनयो भव्यते । इदं नयद्वयं तावदस्ति । कित्वत्र निश्चयनय उपादेयः न चासद्द्भुतव्यवहारः ।
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ननु रागादीनात्मा करोति भुंक्ते चेत्येवं लक्षणो निश्वयनयो व्याख्यातः स कथमुपादेयो भवति ? परिहारमाह - रागादीनेवात्मा करोति न च द्रव्यकर्मरागादय एव बन्धकारणमिति यदा जानाति जीवस्तदा रागद्वेषादिविकल्पजालत्यागेन रागादिविनाशार्थं निजशुद्धात्मानं भावयति । ततश्च रागादिविनाशो भवति । रागादिविनाशे वात्मा शुद्धो भवति । ततः परंपरया शुद्धात्मसाधकत्वादयमशुद्धयोऽप्युपचारेण शुद्धनयो भण्यते निश्चयनयो न भण्यते तथैवोपादेयो भण्यते इत्यभिप्रायः ।। १८६ ॥
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