________________
पणसारो ]
[ ४५१
प्रकार अनात्म को छोड़कर, आत्मा को ही आत्म रूप से ग्रहण करके, परद्रव्य से भिन्नत्व के कारण आत्मारूप ही एक अग्र में (ध्येय में ) चिन्ता को रोकता है, वह एकाग्रचिन्तानिरोधक (एक विषय में विचार को रोकने वाला आत्मा ) उस एकाग्रचिन्तानिरोध के काल में वास्तव में शुद्धात्मा होता है। इससे निश्चित होता है कि शुद्धमय से ही शुद्धात्मा की प्राप्ति होती है ॥ १६२॥
तात्पर्यवृत्ति
अथ शुद्धनमाच्छुद्धात्मलाभो भवतीति निश्चिनोति
णाहं होमि पसि ण मे परे संति नाहं भवामि परेषाम् । न मे परे सन्तीति समस्तचेतनाचेतनपरद्रव्येषु स्वस्वामिसम्बन्धं मनोवचनकायैः कृतकारितानुमतैश्च स्वात्मानुभूतिलक्षणनिश्वयनयबलेन पूर्वमपहाय निराकृत्य । पश्चात् किवा महको ज्ञानमहमेकः सकलविमलकेवलज्ञानमेवाहं भावकर्मद्रव्यकर्मनो कर्म रहितत्वेनैकश्च । इदि जो सामवि इत्यनेन प्रकारेण योऽसौ ध्यायति चिन्तयति भावयति । क्त्र ? झाणे निजशुद्धात्मध्याने स्थितः सो अप्पाणं हवदि मादा स आत्मानं भवति ध्याता | सचिदानन्दैकस्वभावपरमात्मानं ध्याता भवतीति । ततश्च परमात्मध्यानात्तादृशमेव परमात्मानं लभते । तदपि कस्मात् ? उपादानकारणसदृशं कार्यमिति वचनात् । ततो ज्ञायते शुद्धनयाच्छुद्धात्मलाभ इति ॥ १६२ ॥
उत्थानिका— आगे कहते हैं कि शुद्ध नय से शुखात्मा का लाभ होता है
अन्वय सहित विशेषार्थ - ( अहं परेपि न होमि ) मैं दूसरों का नहीं हूँ ( परे मे सन्ति) दूसरे पदार्थ मेरे नहीं हैं ( अहं एक्की जाणं ) मैं अकेला ज्ञानमयी हूं ( इदि ) ऐसा (जो झाणे शार्यादि) जो ध्यान में ध्याता है ( सो अप्पाणं शादा यदि ) वह आत्मा को ध्याने वाला होता है । सर्व ही चेतन अचेतन परद्रव्यों में अपने स्वामीपने के सम्बन्ध को मन वचन काय व कृत कारित अनुमोदना से अपने स्वात्मानुभव लक्षण निश्चयनय के बल के द्वारा पहले ही दूर करके मैं सर्व प्रकार निर्मल केवल ज्ञानमयी हूं तथा सब भावकर्म, द्रव्यकर्म, नोकर्म से रहित एक है इस तरह जो कोई निज शुद्ध आत्मा के ध्यान में तिष्ठकर चितवन करता है यह चिदानंदमयी एक स्वभावरूप परमात्मा का ध्याने वाला होता है । इस तरह के परमात्म ध्यान से वह ज्ञानो वैसी ही परमात्मा अवस्था को पाता है, क्योंकि यह नियम है कि जैसा उपादानकारण होता है वैसा कार्य होता है । इसलिये यह मात जानी जाती है कि शुद्ध निश्चयrय के विषय का ध्यान करने से शुद्ध आत्मा का लाभ होता है ।।१६१॥