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[ पवयणसारो निर्मल केवलज्ञानादि अनन्तगुणस्वरूप निज आत्मपदार्थ को निश्चल अनुभूतिल्प निश्चयनय के विषय से रहित होता हुआ व्यवहार के विषय में मोहितचित्त होकर शरीर तथा परद्रच्यों में "मैं शरीररूप है तथा वह धन आदि परद्रव्य मेरा है" ऐसे ममत्वभाव को नहीं छोड़ता है वह पुरुष जीवन-मरण, लाभ-अलाभ, सुख-दुःख, शत्रु-मित्र, निन्दा-प्रशंसा भावि में परम समताभावरूप यतिपने के चारित्र को दूर से ही छोड़कर उस चारित्र से उल्टे मिथ्यामार्ग में लग जाता है। मिथ्याचारित्र से संसार में भ्रमण करता है। इससे सिद्ध हुआ कि अशुद्धनय के विषय में मोहित होने से अशुद्धात्मा का लाभ होता है ॥१६॥ अथ शुद्धनयात् शुद्धात्मलाभ एवेत्यवधारयति
णाहं होमि परेसि ण मे परे संति णाणमहमेक्को। ___ इदि जो शायवि झाणे सो अप्पाणं हववि झादा ॥१६॥
नाहं भवामि परेषां न मे परे सन्ति ज्ञानमहमकः ।
इति यो ध्यायति ध्याने स आत्मा भवति ध्याता ।।१६१॥ यो हि नाम स्वविषयमात्रप्रवृत्ताशुद्ध व्यनिरूपणात्मकक्ष्यबहारमयाविरोधमध्यस्थः शुद्धद्रव्यनिरूपणात्मकमिश्चयनयापहस्तितमोहः सन् नाहं परेषामस्मि न परे मे सन्तीति स्वपरयोः परस्परस्वस्वामिसम्बन्धमुत्य शुद्धज्ञानमेवैकमहमित्यनात्मानमुत्सृज्वात्मानमेवात्मत्वेनोपादाय परद्रव्यव्यावृत्तत्वादात्मन्येवकस्मिन्नने चिन्तां निरुणद्धि स खल्काग्रचिन्तानिरोधकस्तस्मिन्नेकाप्रचिन्तानिरोधसमये शुद्धात्मा स्यात् । अतोऽवधार्यते शुद्धनयादेव शुद्धात्मलाभः ॥१६॥
भूमिका--अब, यह निश्चित करते हैं कि शुद्धनय से शुद्धात्मा की ही प्राप्ति होती है
___ अन्वयार्य-अहं परेषां न भवामि] 'मैं परका नहीं हैं, परे मे न सन्ति] पर मेरे नहीं हैं, [ज्ञानम् अहम् एकः] मैं एक ज्ञान स्वरूप हूँ,' इति यः ध्यायति] इस प्रकार जो ध्यान करता है, [सः आत्मा] वह आत्मा [ध्याने ] (ध्यान के काल में) [ध्याता भवति] ध्याता होता है।
टीका—जो आत्मा, मात्र अपने विषय में प्रवर्तमान अशुद्धद्रव्य के निरूपणस्वरूप व्यवहारनय से अविरोधरूप मध्यस्थ होता हुआ तथा शुद्धतव्य के निरूपणस्वरूप निश्चयनय के द्वारा जिसने मोह को दूर किया है, ऐसा होता हुआ, 'मैं परका नहीं हैं, पर मेरे नहीं है इस प्रकार स्व-पर के परस्पर स्वस्वामिसंबंध को छोड़कर, 'शुद्धज्ञान ही एक मैं हूँ' इस