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[ पवयणसारो तस्य स्वपरिणाम निमित्तमात्रीकृत्योपात्तकर्मपरिणामाभिः पुद्गलधूलिभिविशिष्टावगाहरूपेणोपादीयते कदाचिन्मुच्यते च ॥१८६॥
भूमिका-तब फिर (यदि आत्मा पुद्गलों को कर्मरूप परिणमित नहीं करता) तो आत्मा किस प्रकार पुद्गलकर्मों के द्वारा ग्रहण किया जाता है और छोड़ा जाता है ? इसका निरुपण करते हैं:
अन्वयार्थ- [सः] वह (आत्मा) [इदानीं] अभी (संसारावस्था में) [द्रव्यजातस्य] द्रव्य से (आत्मद्रव्य से) उत्सन्न होने वाले स्विकपरिणामस्य] (अशुद्ध) स्वपरिणाम का [कर्ता सन् ] कर्ता होता हुआ [कर्मधूलिभिः] कर्मरज से [आदीयते] ग्रहण किया जाता है, और [कदाचित् विमुच्यते] कदाचित् छोड़ा जाता है ।
टीका-वह यह आत्मा परद्रव्य के ग्रहण-त्याग से रहित होता हुआ भी, अभी संसारावस्था में, परद्रव्य परिणाम को निमित्तमात्र करते हुए, द्रष्यत्वमूत (द्रव्य रूप, द्रव्य से उत्पन्न) होने से केवल अपने परिणाममात्र के कर्तृत्व का अनुभव करता हुआ, उसके इसी स्थपरिणाम को निमित्तमात्र करके कर्मपरिणाम को प्राप्त होती हुई पुद्गलरज के द्वारा विशिष्ट अवगाह रूप से ग्रहण किया जाता है और कदाचित् छोड़ा जाता है ॥१८६।।
तात्पर्यवृत्ति । अथ यद्ययमात्मा पुद्गलकर्म न करोति न च मुञ्चति तहि बन्धः कथं तहि मोक्षोऽपि कथमितिप्रश्ने प्रत्युत्तरं ददाति--
स इवाणि कत्ता सं स इदानी कर्ता स स पूर्वोक्तलक्षण आत्मा इदानी कोऽर्थः एवं पूर्वोक्तनयविभागेन कर्ता सन् । कस्य ? सगपरिणामस्स निविकारनित्यानन्दैकलक्षणपरमसुखामृतव्यक्तिरूपकार्य समयसारसाधकनिश्चयरत्नत्रयात्मककारणसमयसारबिलक्षणस्य मिथ्यात्वरागादिविभावरूपस्य स्वकीयपरिणामस्य । पुनरपि किं विशिष्टस्य ? वव्वजादस्स स्वकीयात्मद्रव्योपादानकारणजातस्य । आदीयदे कदाई कम्मधूलीहि आदीयते बध्यते । काभिः ? कर्मधूलिभिः कर्तृ भूताभिः कदाचित्पूर्वोक्तविभावपरिणामकाले । न केवलमादीयते विमुचवे विशेषेण मुच्यते त्यज्यते ताभिः कर्मधूलिभिः कदाचित्पूर्वोक्तकारणसमयसारपरिणतिकाले । एतावता किमुक्तं भवति-अशुद्धपरिणामेन बध्यते शुद्धपरिणामेन मुच्यते इति ।।१८६॥
उत्थानिका--आगे शिष्य ने प्रश्न किया कि जब यह आत्मा पोद्गतिककर्म को नहीं करता है, न छोड़ता है तब इसके बन्ध कैसे होता है तथा मोक्ष भी कैसे होता है ? इसके समाधान में आचार्य उत्तर देते हैं
__अन्वय सहित विशेषार्थ-(इवाणि) अब इस संसार अवस्था में अशुद्धनय से (स) वह आत्मा (दव्यजावस्स सगपरिणामस्स) अपने ही आत्मद्रव्य से उत्पन्न अपने ही