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पक्ष्यणसारो 1
[ ४४१ परिणाम का (कत्ता सं) कर्ता होता हुआ (कदाई) कभी तो (कम्मधूलोहि) कर्मरूपी धूल से (आदीयदे) बंध जाता है व कभी (विमुच्चदे) छूट जाता है । वह पूर्वोक्त संसारी आत्मा अब वर्तमान में इस तरह पूर्वोक्त नय विभाग से अर्थात् अशुद्धनय से निर्विकार मित्यानन्दमयी एक लक्षणरूप परमसुखामृत की प्रगटतामयी कार्य समयसार को साधने वाले निश्चयरत्नत्रयमय कारण समयसार से विलक्षण मिथ्यात्व व रागादि विभावरूप अपने ही आत्मद्रव्यरूप उपादानकारण से उत्पन्न अपते परिणाम का कर्ता होता हुआ पूर्वोक्त विभाव परिणाम के समय में कर्मरूपी धूल से बंध जाता है। और जब कभी पूर्वोक्त कारण समयसार की परिणति में परिणमन करता है तब उन्हीं कर्म को रों से विशेष करके छूटता है। इससे यह कहा गया कि यह जीव अशुद्ध परिणामों से बंधता है तथा शुद्ध परिणामों से मुक्त होता है ॥१६॥
अथ किंकृतं पुद्गलकर्मणां वैचित्र्यमिति निरुपयति
परिणमवि जदा अप्पा सुहम्हि असुहाम्ह रागदोसजुदो। तं पविसवि कम्मरयं णाणावरणाविभावेहि।।१८७॥ · परिणमति यदात्मा शुभेऽशुभे रागद्वेषयुतः।।
ते प्रविशति कर्मरजो ज्ञानावरणादिभावः ॥१८७॥ अस्ति खल्यात्मनः शुभाशुभपरिणामकाले स्वयमेत्र समुपात्तवैचित्र्यकर्मपुद्गलपरिणामः नवधनाम्बुनो भूमिसंयोगपरिणामकाले समुपात्तवैचित्र्यान्यपुद्गलपरिणामवत् । तथाहि-यदा मवधनाम्बुभूमिसंयोगेन परिणमति तदान्ये पुद्गलाः स्वयमेव समुपातवैचिश्यः शादलशिलीन्ध्रशक्रगोपादिभावैः परिणमन्ते, तथा यदायमात्मा रागद्वेषवशीकृतः शुभाशुभभावेन परिणमति तदा अन्ये योगद्वारेण प्रविशन्तः कर्मपुवगला: स्वयमेव समुपातवैचित्र्यमा॑नावरणाविभावैः परिणमन्ते। अतः स्वमावकृत कर्मणां वंचिन्यं न पुनरास्मकृतम् ॥१८॥
भूमिका- अब पुद्गल कर्मों की विचित्रता (भानावरण, दर्शनावरणाविरूप अनेकप्रका ता) है, इसका निरुपण करते हैं
अन्वयार्थ— [यदा] जब [रागद्वेषयुतः] रागद्वेषयुक्त [आत्मा] आत्मा [शुभे अशुभे] शुभ और अशुभ भावों में [परिणमति] परिणमित होता है, तब [कर्मरजः] कर्मरज [ज्ञानावरणादिभावः] ज्ञानावरणादिरूप से [२] उसमें [प्रविशति] प्रवेश करती है ।