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पवयणसारो ]
[ ४३५ यो नैव जानात्येवं परमात्मानं स्वभावमासाद्य ।
कुरुतेऽध्यवसानमहं ममेदमिति मोहात् ।।१८६।। यो हि नाम नवं प्रतिनियतवेतनाचेतनत्वस्वभावेन जीवपुद्गलयोः स्वपरविभागं पश्यति स एवाहमिदं ममेदमित्यात्मात्मीयत्वेन परद्रव्यमध्यवस्यति मोहान्नान्यः । अतो जीवस्य परब्रव्यप्रवृत्तिनिमिसं स्वपरपरिच्छेदाभावमात्रमेव सामर्थ्यात्स्यद्रव्यप्रवृत्तिनिमित्तं तदभावः ॥१८३॥
भूमिका--अब, यह निश्चित करते हैं कि-जीव को स्वद्रव्य में प्रवृत्ति का निमित्त स्वपर के विभाग का ज्ञान है, और परद्रव्य में प्रवृत्ति का निमित्त स्व-पर के विभाग का अज्ञान है
अन्वयार्थ-[यः] जो [एवं] इस प्रकार [स्वभावम् आसाद्य] स्वभाव को प्राप्त करके (जीव-पुद्गल के स्वभाव को निश्चित करके) [परम् आत्मानं] परको और स्वको [न एव जानाति जानता ही नही, [मोहात्] वह मोह से [अहम् ] यह मैं हूं, [इदं मम] यह मेरा है' [इति] इस प्रकार [अध्यवसान] अध्यवसान [कुरुते करता है ।
टीका—जो आत्मा इस प्रकार (अपने-अपने) निश्चित चेतनत्व और अचेतनत्वरूप स्वभाव के द्वारा जीव और पुद्गल के स्वपर के विभाग को नहीं देखता, वहीं आत्मा 'यह मैं हूँ, यह मेरा है, इस प्रकार मोह से परद्रव्य में अपनेपन का मध्यवसान करता है। दूसरा नहीं। इससे (यह निश्चित हुआ कि) जीव को परद्रव्य में प्रवृत्ति का निमित्त स्वपर के ज्ञान का अमावमात्र ही है, और (कहे बिना भी) सामर्थ्य से (यह निश्चित हुआ कि) स्वद्रव्य में प्रवृत्ति का निमित्त उसका अभाव (स्वपर के ज्ञान के अमाव का अमाव-स्वपर के ज्ञान का सद्भाव है) ॥१८३॥
तात्पर्यवृत्ति अथैतदेव भेदविज्ञान प्रकारान्तरेण दृढयति,
जो णवि जाणवि एवं यः कर्ता नैव जानात्येवंपूर्वोक्तप्रकारेण । क ? परं षड्जीवनिकायादिपरद्रव्यम् अप्पाणं निर्दोषिपरमात्मद्रव्यरूपं निजात्मानम्। किंकृत्वा ? सहायमासेज्ज शुद्धोपयोगलक्षणनिजशुद्धस्वभावमाश्रित्य कीरदि अज्झवसाणं स पुरुषः करोत्यध्यवसानं परिणामं । केन रूपेण ? अहं ममेदत्ति ममकाराहकारादिरहितपरमात्मभावनाच्युतो भूत्वा परद्रव्यं रागादिकमहर्मिति देहादिक भमेतिरूपेण । कास्मात् ? मोहादो मोहाधीनत्वादिति । तत: स्थितमेतत्स्वपरभेदविज्ञानबलेन स्वसंवेदनज्ञानी जीवः स्वद्रव्ये रति परद्रव्ये निवृति करोतीति ॥१८३।।
एवं भेदभावनाकथनमुख्यतया सूत्रद्वयेन पञ्चमस्थलं गतम् ।