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पवयणसारी ]
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तीन ही प्रकार का परिणाम सर्व प्रकार से हो उपाधि सहित है इसलिये बंध का कारण है। ऐसा जानकर प्रशस्त तथा अप्रशस्त समस्त राग द्वेष के नाश करने के लिये सर्व रामावि की उपाधि से रहित सहजानन्दमयी एक लक्षणधारी सुखामृतस्वभावमयी निज आत्मद्रव्य में ही भावना करनी योग्य है, यह तात्पर्य है ॥१८०॥
भावार्थ-पंचपरमेष्ठी की भक्ति अर्थात पंचपरमेल्ली के जो रत्नरय रूप गुण व वीतरागता में जो रुचि, प्रतीति तथा गुणानुवाद है वह संवर व निर्जरा के कारण हैं तथा इससे सम्यग्दर्शन निर्मल होता है। भक्ति के समय कर्मोदय से जो मंद कषाय रूप राग होता है वह शुभ राग यद्यपि अल्प बंध का कारण है तथापि परम्परा से मोक्ष का कारण है। भक्ति शुभ राग नहीं है, किन्तु मोक्ष सुख का कारण है । स्वयं श्री १०८ कुन्दकुन्द आचार्य ने इसी प्रवचनसार में गाथा ७६ के पश्चात् गाथा ७६/१ में कहा हैतं देवदेवदेवं जविवरवसहं गुरु तिलोयस्स । पणमति जे मणुस्सा ते सोक्खं अक्खयं जंति ॥७६/१॥
अर्थात-जो भगवान को प्रणाम करते हैं अथवा आराधना करते हैं वे मनुष्य अक्षय सुख (मोक्ष) को पाते हैं।
भावपाहड़ में भी श्री १०८ कुन्दकुन्द आचार्य ने कहा है-- जिणवर चरणंबुरुहं णमंति जे परमभत्तिराएण । ते जम्मवेलिमूलं खणंति वरभावसत्येण ॥१५३॥
अर्थात्-जे पुरुष परम भक्ति अनुराग करि जिनवर के चरण कमलति कं नम हैं ते श्रेष्ठ भाव रूप शस्त्र करि जन्म (संसार) रूपी बेलि ताका मूल जो रागद्वेष मोह आदि कर्म को हणे (नाश करे) हैं। श्री १०८ कुन्दकुन्द आचार्य ने मूलाचार में भी कहा है
__"भत्तीए जिणवराणं खोयदि जं पुटवसंचियं कम्मं ।" अर्थ-जिनवर की भक्ति से पूर्व संचित कर्म का नाश होता ।
___"चैत्यगुरुप्रवचनपूजादिलक्षणा सम्यक्त्वधिनी क्रिया [स० सि०] अर्थ-चत्य (जिन-बिम्ब), गुरु और शास्त्र की पूजा आदि क्रिया सम्यक्त्व को बढ़ाने वाली (निर्मल करने वाली) है ।
इस प्रकार जिनेन्द्र-भक्ति शुभ राग या मात्र बंध की कारण नहीं है अपितु मोक्ष की भी कारण है ॥१८०॥