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पवयणसारो ]
रामपरिणत जीव संस्पर्श करने (संबंध में आने वाले नवोन द्रव्यकर्म से बंधता ही है और चिरसंचित पुराने द्रव्यकर्म से मुक्त नहीं होता । वंशव्यपरिणत जीव संस्पर्श करने (संबंध में आने वाले नवीन द्रव्यकर्म से बंधता नहीं है और चिरसंचित पुराने द्रव्यकर्म से मुक्त हो होता है। इससे निश्चित होता है कि द्रव्यबंध का साधकतम ( उत्कृष्ट हेतु ) होने से रागपरिणाम ही निश्चय से बंध है ।। १७६ ॥ ॥
तात्पर्यवृत्ति
अथ द्रव्यबन्धकारणत्वान्निश्चयेन रागादिविकल्परूपो भाववन्ध एव बन्ध इति प्रज्ञापयति
रतो बंधदि कम्मं रक्तो बध्नाति कर्म । रक्त एवं कर्म बध्नाति न च वैराग्यपरिणतः मुचवि कम्महिं रामरहिंदप्पा मुच्यते कर्मभ्यां रागरहितात्मा मुच्यत एव शुभाशुभकर्मभ्यां रागरहितात्मा न च बध्यते एसो बंधसमासो एष प्रत्यक्षीभूतो बन्धसंक्षेपः । जीवाणं जीवानां सम्बन्धी जाण णिच्छयवो जानीहि त्वं हे शिष्य ! निश्चयतो निश्चयनयाभिप्रायेणेति । एवं रागपरिणाम एवं बन्धकारणं ज्ञात्वा सनस्तरागादिविकलजाललग विशुदर्शनस्वभाव निजात्मतत्वे निरन्तरं भावना कर्त
व्येति ॥ १७६ ॥
)
उत्थानिका- आगे फिर भी प्रगट करते हैं कि निश्चय से रागादि विकल्प ही द्रव्यबन्ध का कारण रूप होने से भावबंध ही बंध हैअन्वय सहित विशेषार्थ --- ( रत्तो रागी जीव हो (कम्मं बंधदि ) कर्मों को बांधता है न कि वैराग्यवान तथा ( रागरहिदप्पा ) रागरहित अर्थात् वैराग्य सहित आत्मा (कम्मे मुचंदि) कर्मों से छूटता ही है, वह रागरहित अर्थात् वैरागी शुभ अशुभ कर्मों से बंधता नहीं है (जीवाणं एसो बंधसमासो) यह जीव संबंधी प्रगट बंध तत्त्व का संक्षेप है (च्छियदो जाण ) हे शिष्य ! निश्चयनय के अभिप्राय से ऐसा जान। इस तरह राग परिणाम को ही बंध का कारण जान करके सर्व रागादि विकल्प जालों का त्याग करके विशुद्धज्ञान दर्शन स्वभावधारी निज आत्मतत्व में निरन्तर भावना करनी योग्य है ॥ १७६ ॥
अथ परिणामस्य द्रव्यबन्धसाधकतम रागविशिष्टत्वं सविशेषं प्रकटयति-परिणामादो बंधो परिणामो रागबोसमोहज़दो ।
असुहो मोहपदोसो सुहो व असुहो हवदि रागो ॥ १८० ॥ परिणामाबन्धः परिणामो रागद्वेषमोहयुतः । अशुभौ मोहप्रद्वेषी शुभो बाशुभो भवति रागः ।। १८० ।।
द्रव्यबन्धोऽस्ति तावद्विशिष्टपरिणामात् । विशिष्टत्वं तु परिणामस्य रामदेवमोहमयत्वेन । तच्च शुभाशुभत्वेन द्वैतानुवति । तत्र मोहद्वेषयत्वेनाशुभत्वं, रागमयत्वेन तु शुभत्वं चाशुभत्वं च । विशुद्धिसंक्लेशाङ्गत्वेन रागस्य द्वैविध्यात् भवति ॥ १८०॥