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[ पवयणसारो ___ अथ विशिष्टपरिणामविशेषमविशिष्टपरिणामं च कारणे कार्यमुपवयं कार्यत्वेन निविंशति
सुहपरिणामो पुण्णं असुहो पाव त्ति भणिद मण्णेसु' । परिणामो पारणगयो दुखकारण समये ।।८१॥
शुभपरिणामः पुण्यमशुभः पापमिति भणितमन्येषु ।
परिणामोऽनन्यगतो दुःखक्षयकारणं समये ॥१८॥ द्विविधस्तावत्परिणामः परद्रव्यप्रवृत्तः स्वद्रव्यप्रवृत्तश्च । तत्र पर द्रव्यप्रवृत्तः परोपरक्तत्वाद्विशिष्टपरिणामः, स्वद्रव्यप्रवृत्तस्तु परानुपरफ्त्तत्वादविशिष्ट परिणामः । तत्रोक्तौ तो विशिष्टपरिणामस्य विशेषी, शुभपरिणामोऽशुभपरिणामश्च । तत्र पुण्यपुद्गलबन्धकारणत्वात् शुभपरिणामः पुण्यं, पापपुद्गलबन्धकारणत्वावशुभपरिणामः पापम् । अविशिष्टपरिणामस्य तु शुद्धत्वेनैकत्वान्नास्ति विशेषः । स काले संसारदुःखहेतुकर्मपुद्गलक्षयकारणत्वात्संसारदु:खहेतुकर्मपुद्गलक्षयात्मको मोक्ष एव ॥१८॥
भूमिका-अब विशिष्ट परिणाम के भेद को तथा अविशिष्ट परिणाम को, कारण में कार्य का उपचार करके कार्य रूप से बतलाते हैं
अन्वयार्थ- [अन्येषु] पर के प्रति [शुभ परिणामः] शुभ परिणाम [पुण्यम् ] पुण्य है, और [अशुभः] अशुभ परिणाम [पापम्] पाप है, [इति भणितम्] ऐसा कहा है, [अनन्यगतः परिणामः] जो दूसरों के प्रति प्रवर्तमान नहीं है ऐसा परिणाम [समये] समय पर [दुःखक्षयकारणम्] दुःख क्षय का कारण है।
टीका-प्रथम तो परिणाम दो प्रकार का है-परद्रव्यप्रवृत्त और स्वद्रव्यप्रवृत्त । इनमें से परद्रव्यप्रवृत्त परिणाम परके उपरक्त (परके निमित्त से विकारी) होने से विशिष्ट परिणाम है, और स्वद्रव्यप्रवृत्त परिणाम परके द्वारा उपरक्त न होने से अविशिष्ट परिणाम है; उसमें विशिष्ट परिणाम के पूर्वोक्त दो भेद हैं-शुभ परिणाम और अशुभ परिणाम । उनमें पुण्यरूप पुद्गल के बंध का कारण होने से शुभ-परिणाम पुण्य है, और पापरूप पुद्गल के बंध का कारण होने से अशुभ परिणाम पाप है। अविशिष्ट परिणाम तो शुद्ध होने से एक है, इसलिये उसके भेद नहीं हैं। वह (अविशिष्ट परिणाम) यथाकाल संसार दुःख के हेतुभूत कर्मपुद्गल के क्षय का कारण होने से संसार दुःख के हेतुभूत कर्मपुगल का क्षयस्वरूप मोक्ष ही है ॥१८॥
१. भणियं (ज० ३०)।