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! पवयणसारो अमूतं आत्मा के रूपादि गुण युक्तता नहीं होने से, यथोक्त स्निग्ध रुक्षत्व रूप स्पर्श विशेष असम्भव होने से, एक अंग विकल है। (अर्थात् बंध योग्य दो अंगों में से एक अंग अयोग्य है-स्पर्श गुण रहित होने से बंध को योग्यता वाला नहीं है।) ॥१७३॥
__ तात्पर्यवृत्ति अथामूर्तशुद्धात्मनो व्याख्याने कृते सत्यमूर्तजीवस्य मूर्तपुद्गलकर्मणा सह कथं बन्धो भवतीति पूर्वपक्षं करोति
मुत्तो रूवादिगुणो मूर्तों रूपरसगन्धस्पर्शत्वात् पुद्गलद्रव्यगुणः बज्झदि अन्योन्यसंश्लेषेण बध्यते बन्धमनुभवति, तत्र दोषो नास्ति । कैः कृत्वा ? फासेहि अण्णमण्णेहि स्निग्धरूक्षगुणलक्षणस्पर्शसंयोगैः । किविशिष्ट: ? अन्योन्यैः परस्परनिमित्तः । तं विवरीदो अप्पा बज्झवि किह पोग्गलं कम्मं तद्विपरीतात्मा बध्नाति कथं पौद्गलं कर्मेति । अयं परमात्मा निर्विकारपरमचैतन्यचमत्कारपरिणतत्वेन बन्धकारणभूतस्निग्धरूक्षगुणस्थानीयरागद्वेषादिविभावपरिणामरहितत्वादमुर्तत्वाच्च पौद्गलंकर्म कथं बध्नाति न कथमपीति पूर्वपक्षः ।।१७३॥ ।
उत्थानिका-आगे जब आत्मा अमूर्तिक शुद्ध स्वरूप है तब इस अमूर्तिक जीव का मूर्तिक पुद्गल कर्मों के साथ किस तरह बंध हो सकता है ऐसा पूर्वपक्ष करते हैं--
अन्बय सहित विशेषार्थ-(रूवाविगुणो) स्पर्श रस गंध वर्ण गुणधारी (मुत्तो) मूर्तिक पुद्गल द्रव्य (फासेहिं) स्निग्ध, रूक्ष स्पर्श गुणों के निमित्त से (अण्णम् अहं) एक दूसरे से परस्पर (बज्मदि) बंध जाते हैं । (तस्विरीदो) इससे विरुद्ध अमूर्तिक (अप्पा) आत्मा (किह) किस तरह (पोग्गलंकम्म) पौगलिक फर्मवर्गणा को (अंधवि) बांधता है। निश्चयनय से यह आत्मा परमात्मा स्वरूप है, निर्विकार चैतन्य चमत्कारी परिणति में वर्तने वाला है, बंध के कारण स्निग्ध रूक्ष के स्थानापन्न रागद्वेषावि विभाव परिणामों से रहित है और अमूतिक है सो किस तरह पुद्गल मूर्तिक कर्मों को बांध सकता है ? किसी भी तरह नहीं बांध सकता है, ऐसा पूर्वपक्ष शंकाकार ने किया है ॥१७३॥ अथवममूर्तस्याप्यात्मनो बन्धो भवतीति सिद्धान्तयति
रूवादिएहिं रहिदो पेच्छदि जाणादि स्वमादीणि । दव्वाणि गुणे य जधा तह बंधो तेण जाणीहि ।।१७४॥ ___ रूपादिक रहितः पश्यति जानाति रूपादीनि ।
द्रव्याणि गुणांश्च यथा तथा बन्धस्तेन जानीहि ।।१७४।। येन प्रकारेण रूपादिरहितो रूपीणि द्रव्याणि तद्गुणांश्च पश्यति जानाति च, तेनैव प्रकारेण रूपादिरहितो रूपिभिः कर्मयुद्गलैः किल बध्यते । अन्यथा कथममूतों मूर्त