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पवयणसारो ]
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पश्यति जानाति चेत्यत्रापि पर्यनुयोगस्यानिवार्यत्वात् । न चैतवत्यन्तदुर्घटत्वाहार्दान्तिकोकृतं, किंतु दृष्टान्तद्वारेणाबालगोपालप्रकटितम् । तथाहि-यथा बालकस्य गोपालकस्य वा पृथगवस्थितं मृबलीयद बलीव वा पश्यतो दानतश्च न बलीवर्वेन सहास्ति सम्बन्धः, विषयभावावस्थितबलीवर्दनिमित्तोपयोगाधिरूढबलीवकारदर्शनज्ञानसम्बन्धो बलीवर्दसम्बंधव्यवहारसाधकस्स्वस्तयेव, तथा किलात्मनो नीरूपत्वेन स्पर्शशून्यत्वाल कर्मपुद्गलः सहास्ति सम्बन्धः, एकावगाहमावावस्थितकर्मपुद्गलनिमित्तोपयोगाधिरूढरागद्वेषाविभावसम्बन्ध: फर्मपुद्गलबन्धव्यवहारसाधारल्येव । १४
भूमिका-अब, यह सिद्धान्त निश्चित करते हैं कि आत्मा के अमूर्त होने पर भी इस प्रकार बंध होता है
अन्वयार्य-[यथा] जैसे [रूपादिकैः रहितः] रूपादिरहित (जीव) [रूपादीनि द्रव्याणि गुणान् च] रूपादि गुण वाले द्रव्यों को (तथा उनके) रूपादि गुणों को [पश्यति जानाति] देखता है और जानता है, [तथा उसी प्रकार (जीव का) [तेन] उसके साथ (मूर्तिक पुद्गल के साथ) [बंध: जानीहि] बंध जानो।
टीका-जिस प्रकार रूपाविरहित (जीव) रूपी व्रज्यों को तथा उनके गुणों को देखता है तथा जानता है, उसी प्रकार रूपादि रहित (जीव) रूपी फर्मपुद्गलों के साथ बंधता है, क्योंकि, यदि ऐसा न हो तो, यहां भी (देखने-जानने के संबंध में भी) यह प्रश्न अनिवार्य है कि अमूर्त मूर्त को कैसे देखता-जानता है ?
ऐसा भी नहीं है कि यह (अरूपी का रूपी के साथ बंध होने की बात अत्यन्त दुर्घट है इसलिये उसे दान्तिरूप बनाया है, परन्तु आबालगोपाल सभी को प्रगट (ज्ञात) हो जाय इसलिये दृष्टान्त द्वारा समझाया गया है। यथा-जिस प्रकार, पृथक् रहने वाले मिट्टी के बैल को देखने-जानने वाले बालक का अथवा (सच्चे) बल को देखने-जानने वाले गोपाल का बल के साथ संबंध नहीं है, तथापि विषयरूप से रहने वाला बल जिनका निमित्त है ऐसे उपयोगारूढ वृषमाकार दर्शन-ज्ञान के साथ संबंध जो कि बल के साथ के संबंधरूप व्यवहार का साधक है, अवश्य ही है। उसी प्रकार, आत्मा का, अरूपित्व के कारण स्पर्शशून्य होने से, कर्मपुद्गलों के साथ संबंध नहीं है, तथापि एकावगाहरूप से रहने वाले कर्म पुद्गल जिनके निमित्त हैं ऐसे उपयोगारूढ़ रागद्वेषादिभावों के संबंध, (जो कि) कर्मपदगलों के साथ के बंधरूप व्यवहार का साधक है, अवश्य ही है ॥१७४॥