________________
पवयणसारो ]
[ ४१५
कर लेते हैं से अनुमान रूप चिह्न से आत्मा का ग्रहण नहीं कर सकते क्योंकि यह चिह्न रहित स्वाभाविक अतीन्द्रियज्ञान के द्वारा जानने योग्य है इसलिये भी अलिंग ग्रहण है । (५) अथवा लिंग नाम शिखा, जटा धारण आदि भेष का है इससे भी आत्मा पदार्थों का ग्रहण नहीं कर सकता क्योंकि स्वाभाविक, विना किसी चिह्न के उत्पन्न अतीन्द्रियज्ञान को यह आत्मा रखने वाला है इसलिये भी अलिंग ग्रहण है । ६ ) अथवा किसी भी शेष के ज्ञान से पर पुरुष भी इस आत्मा का ग्रहण नहीं कर सकते क्योंकि यह आत्मा अपने हो वीतराग स्वसंवेदनज्ञान से ही जाना जाता है इसलिये भी अलिंगग्रहण है। इस तरह अलिगग्रहण शब्द की व्याख्या से शुद्ध जीव का स्वरूप जानने योग्य है, यह अभिप्राय है ॥ १७२ ॥
(
अथ कथममूर्तस्यात्मनः स्निग्धरूक्षत्वाभावाद्बन्धो भवतीति पूर्वपक्षयतिमुसो ख्वादिगुणो बज्झदि फासेहि अण्णमणेहि ।
तब्बिवरीदो अप्पर बज्झवि किधर पोग्गलं कम्मं ॥ १७३ ॥ मूर्ती रूपादिगुणी बध्यते सार्थैरन्योन्यैः ।
तद्विपरीत आत्मा बध्नाति कथं पौद्गलं कर्म || १७३ ||
मूर्तयोहि तावत्पुद्गलयो रूपाविगुणयुक्तत्वेन यथोक्तिस्निग्धरूक्षत्वस्पर्शविशेषादन्योन्यबन्धोऽवधार्यते एव । आत्मकर्मपुद्गलयोस्तु स कथमवधार्यते । मूर्तस्य कर्मबुद्गलस्य रूपादिगुणयुक्तत्वेन यथोदित स्निग्धक्षत्व स्पर्शविशेषासंभवेऽप्यमूर्तस्यात्मनो रूपादिगुणपुरषाभावेन यथोदित स्निग्धरूक्षत्व स्पर्श विशेषासं भावनया चैकाङ्गविकलत्वात् ॥ १७३॥
भूमिका – अब, अमूर्त आत्मा के, स्निग्धरूक्षत्व का अभाव होने से बंध कैसे हो सकता है ? ऐसा पूर्वपक्ष उपस्थित करते हैं—
अन्वयार्थ -- [ रूपादिगुणः ] रूपादिगुणयुक्त [मूर्तः ] मूर्त (पुद्गल ) [ अन्योन्यैः स्पर्णैः ] परस्पर (स्निग्ध- रूक्षरूप) स्पर्शो से [ बध्यते ] बंधता है, (परन्तु ) [ तद्विपरीतः आत्मा ] उससे विपरीत ( स्निग्ध- रूक्ष रहित, अमूर्त) आत्मा [ पौद्गलिकं कर्म ] पौद्गलिककर्म को [ कथं ] कैसे [ बध्नाति ] बांध सकती है ।
टीका-मूर्त दो पुद्गलों का, रूपादि गुण युक्त होने से यथोक्त स्निग्धरूक्षत्व रूप स्पर्श विशेष ( बंधयोग्य स्पर्श) के कारण, पारस्परिक बंध अवश्य ही निश्चय होता है किन्तु आत्मा और कर्म पुद्गल का बंध कैसे समझा जा सकता है ? क्योंकि मूर्त कर्म पुद्गल के, रूपादि गुण युक्त होने से, यथोक्त स्निग्ध- रूक्षत्व रूप स्पर्श विशेष सम्भव होने पर मी, १. किह ( ज ० ० ) ।