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[ पवयणसारो तात्पर्यवृत्ति अर्थवममूर्तस्याप्यात्मनो नयविभागेन बन्धो भवतीति प्रत्युत्तरं ददाति
रूवादिएहि रहिदो अमूर्तपरमचिज्ज्योतिःपरिणतत्वेन तावदयमात्मा रूपादिरहितः। तथाविध: सन् किं करोति ? पेच्छदि आणादि मुक्तावस्थायां युगपत्परिच्छित्तिरूपसामान्यविशेषग्राहककेबलदर्शनज्ञानोपयोगेन यद्यपि तादात्म्यसम्बन्धो नास्ति तथापि ग्राह्यग्राहकलक्षणसम्बन्धेन पश्यति जानाति । कानि कर्मतापन्नानि ? रूवमादीणि दन्याणि रूपरसगन्धस्पर्शसहितानि भूर्तद्रव्याणि । न केवलं द्रव्याणि गुणे य जधा तद्गुणांश्च यथा । अथवा यः कश्चित्संसारी जीवो विशेषभेदज्ञानरहितः सन् काष्ठपाषाणाद्यचेतनजिनप्रतिमां दृष्ट्वा मदीयाराध्योऽयमिति मन्यते । यद्यपि तत्र सत्ताबलोकदर्शनेन सह प्रतिमायास्तादात्म्यसम्बन्धो नास्ति तथापि परिच्छेद्यपरिच्छेदकलक्षणसम्बन्धोऽस्ति । यथा वा समवसरणे प्रत्यक्षजिनेश्वरं दृष्ट्वा विशेषभेदज्ञानी मन्यते मदीयाराध्योऽयमिति । तत्रापि यद्यप्यवलोकनज्ञानस्य जिनेश्वरेण सह तादात्म्यसम्बन्धो. नास्ति तथाप्याराध्याराधकसम्बन्धोऽस्ति । तह बंधो तेण जाणीहि तथा बन्धं तेनैव दृष्टान्तेन जानीहि ।
___ अयमत्रार्थः- यद्यप्ययमात्मा निश्चयेनामुर्तस्तथाप्यनादिकर्मबन्धवशाव्यबहारेण मुर्तः सन् द्रव्यबन्धनिमित्तभूतं रागादिविकल्परूपं भावबन्धोपयोगं करोति । तस्मिन्सति मूर्तद्रव्यकर्मणा सह यद्यपि तादात्म्यसम्बन्धो नास्ति तथापि पूर्वोक्त दृष्टान्तेन संश्लेषसम्बंधोऽस्तीति नास्ति दोषः ॥१७४।।
___एवं शुद्धबुद्धकस्वभावजीवकथनमुख्यत्वेन प्रथमगाथा। मूर्तिरहितजीवस्य भूतकर्मणा सह कथं बन्धो भवतीति पूर्वपक्षरूपेण द्वितीया तत्परिहाररूपेण तृतीया चेति गाथात्रयेण प्रथमस्थलं गतम् ।
उत्थानिका--आगे आचार्य समाधान करते हैं कि किसी अपेक्षा व नय के द्वारा अमूर्तिक आत्मा का पुद्गल से बंध हो जाता है
__ अन्वय सहित विशेषार्थ- (जधा) जैसे (रुवादिएहि रहिंदो) रूपादि से रहित आत्मा (रूवमाबोणि दव्याणि गुणे य) रूपादि गुणधारी द्रव्यों को और उनके गुणों को (पेच्छदि जाणादि) देखता जानता है (तह) तसे (तेण) उस पुद्गल के साथ (बंधो) बंध (जाणीहि) जानो । जैसे अमूर्तिक व परम चैतन्य ज्योति में परिणमन रखने के कारण यह परमात्मा वर्ण आवि से रहित है, ऐसा होता हुआ भी रूप, रस, गन्ध, स्पर्श सहित मूर्तिक द्रव्यों को और उनके गणों को मुक्तावस्था में एक समय में वर्तने वाले सामान्य और विशेष को ग्रहण करने वाले केबलवर्शन और केवलज्ञान उपयोग के द्वारा ज्ञेय ज्ञायक सम्बन्ध से देखता जानता है यद्यपि उन ज्ञेयों के साथ इसका तादात्म्य सम्बन्ध नहीं है अर्थात् वे मूर्तिक द्रव्य और गुण भिन्न हैं और यह ज्ञाता द्रष्टा उनसे भिन्न है। अयवा जैसे कोई भी संसारी जीव विशेष भेवज्ञान को न पाता हुआ काष्ठ व पाषाण आदि को अचेतन जिन-प्रतिमा को देखकर यह मेरे द्वारा पूजने योग्य है, ऐसा मानता है । यपि यहाँ सत्ता को देखने मात्र दर्शन के साथ उस प्रतिमा का तादात्म्य सम्बन्ध नहीं है तथापि