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।. पवयणसारो
सर्वथा शुद्ध अमूर्तिक यदि आत्मा होता तो इसके बन्ध मूतिक से कभी प्रारम्भ नहीं हो सकता था । अनादि संसार में कर्म-सहित ही आत्मा जैसा अब प्रगट है वैसा अनादि से ही चला आ रहा है इससे कर्मबन्ध की व्यवस्था सिद्ध होती है ॥१७४।।
इस तरह शुद्ध बुद्ध एक स्वभाव रूप जीध के कथन को मुख्यता से एक गाथा, फिर अमूर्तिक जीव का मूर्तिक कर्म के साथ कैसे बन्ध होता है इस पूर्व पक्ष रूप से दूसरी, फिर उसका समाधान करते हुए तीसरी, इस तरह तीन गाथाओं से प्रथम स्थल समाप्त हुआ।
अथ भावबन्धस्वरूपं ज्ञापयति
उवओगमओ जीवो मुज्झदि रज्जेदि वा पदुस्सेदि । पप्पा विविध विसये जो हि पुणो तेहिं सो बंधो ॥१७॥
उपयोगमयो जीवो मुह्मति रज्यति वा प्रद्वेष्टि ।
प्राप्य विविधान् विषयान् यो हि पुनस्तैः स बन्धः ॥१७५।। :: अयमात्मा सर्व एवं तावत्सविकल्पनिर्विकल्पपरिच्छेदात्मकत्वादुपयोगमयः । तत्र यो हि नाम नानाकारान परिच्छेद्यानानासाद्य मोहं वा राग या द्वेषं वा समुपैति स नाम तः परप्रत्ययरपि मोहरागद्वेषरुपरक्तात्मस्वभावत्वान्नीलपीतरत्तोपाश्रयप्रत्ययनीलपीतरक्तत्वरुपरक्तस्वभावः स्फटिकमणिरिव स्वयमेक एव तद्धावद्वितीयत्वाद्बन्धो भवति ।।१७।।
भूमिका--अब भावबन्ध का स्वरूप बतलाते हैं--
अन्वयार्थ- [यः हि पुनः] जो [उपयोगमयः जीवः] उपयोगमय जीव [विबिधान विषयान् ] विविध विषयों को [प्राप्य ] प्राप्त करके [मुह्यति ] मोह करता है, [रज्यति] राग करता है, [वा] अथवा [प्रद्वेष्टि ] द्वेष करता है, सः वह जीव [तै:] उनके द्वारा (मोह-राग-द्वेष के द्वारा) [बन्धः] बंध रूप है ।
टीका-प्रथम तो यह आत्मा सर्व ही उपयोगमय है, क्योंकि वह सविकल्प और निर्विकल्प प्रतिभास स्वरूप है (अर्थात् शान-दर्शन स्वरूप है।) उसमें जो आत्मा विविधाकार प्रतिभासित होने वाले पदार्थों को प्राप्त करके मोह, राग अथवा द्वेष करता है वह काला, पीला और लाल आश्रय जिनका निमित्त है ऐसे कालेपन, पीलेपन और ललाई के द्वारा उपरक्त स्वभाव वाले स्फटिकमणि की भांति, पर जिनका निमित्त है ऐसे मोह, राग और डोष के द्वारा उपरक्त (विकारी) आत्म स्वभाव वाला होने से, स्वयं अकेला ही बन्धरूप है, क्योंकि मोह-राग द्वषादि माव उसका द्वितीय है। बन्ध तो दो के बीच
१. संबंधो (ज० ५०)।