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[ पवयणसारी तात्पर्यवृत्ति अथ देहमनोबचनविषयेऽत्यन्तमाध्यस्थ्यमुद्योतयति
णाहं देहो ण मणो ण चेव वाणी नाहं देहो न मनो न चैव वाणी । मनोवचनकायव्यापाररहितात्परमात्मद्रव्याभिन्नं यन्मनोवचनकायत्रयं निश्चयनयेन तन्नाहं भवामि । ततः कारणात्तत्पक्षपातं मुक्त्वात्यन्तमध्यस्थोऽस्मि । ण कारणं तेसि न कारणं तेषाम् । निर्विकारपरमाल्हादैकलक्षणसुखामतपरिणतेर्यदपादानकारणातमात्मना तशिलक्षणो मनोवचनकायानामुपादानकारणभूतः पुद्गलपिण्डो न भवामि। ततः कारणात्पक्षपातं मुक्त्वात्यन्तमध्यस्थोऽस्मि । कत्ता ण हि कारइदा अणुमंता
व कत्तीणं कर्ता न हि कारयिता अनुमन्ता नैव कत, णाम् स्वशुद्धात्मभावनाविषये यत्कृतकारितानुमतस्वरूपं तद्विलक्षणं यन्मनोवचनकायविषये कृतकारितानुमतस्वरूपं तन्नाहं भवामि । ततः कारणापक्षपातं मुक्त्वात्यन्तमध्यस्थोऽस्मीति तात्पर्यम् ।।१६।।
उत्थानिका-आगे शरीर, वचन और मन के सम्बन्ध में मध्यस्थ भाव को झलकाते हैं--
__ अन्वय सहित विशेषार्थ—(अहं वेहो ण) मैं शरीर नहीं हूँ (ण मणो) न मन हूं। ण चैव वाणी) और न वचन ही हैं (ण तेसि कारण) न इन मन वचन काय का उपादान कारण हूं (ण कर्ता) न मैं इनका करने वाला हूं (ण कारइदा) न कराने वाला हूँ (णेव कत्तीणं अणमंता) और न करने वालों को अनुमोदना करता हूँ। मन, वचन, काय के व्यापार से रहित, परमात्म द्रध्य से भिन्न जो मन, वचन, काय तीन हैं, मैं निश्चय से इन रूप नहीं हूं इसलिये इनका पक्ष छोड़कर मैं अत्यन्त मध्यस्थ होता है। विकार-रहित परम आनन्दमयो एक लक्षणरूप सुखामृत में परिणति होना उसका जो उपादानकारण आत्मद्रव्य उस रूप मैं हूँ। आत्म-द्रव्य से विलक्षण मन वचन काय का उपादान कारण पुद्गल पिड है, मैं नहीं हैं। इस कारण से उनके कारण का भी पक्ष छोड़कर मध्यस्थ होता है । मैं अपने ही शुद्धात्मा की भावना के सम्बन्ध में कर्ता, कराने वाला तथा अनुमोदना करने वाला नहीं हूँ। इसलिये इसका पक्ष भी छोड़कर मैं अत्यन्त मध्यस्थ होता हूँ ॥१६०॥
अथ शरीरवाङ्मनसा परद्रव्यत्वं निश्चिनोति
देहो य मणो वाणी पोग्गलववप्पग' त्ति णिविट्ठा । पोग्गलदव्वं हि पुणो पिंडो परमाणुवव्वाणं ॥१६॥
देहश्च मनो वाणी पुद्गलद्रव्यात्मका इति निर्दिष्टाः ।।
पुद्गलद्रव्यमपि पुन: पिण्डः परमाणुद्रव्याणाम् ॥१६१।। शरीरं च वाक् च मनश्च त्रीप्यपि परद्रव्यं पुद्गलद्रव्यात्मकत्वात् । पुद्गल ध्यत्वं तु तेषां पुद्गलद्रव्यस्वलक्षणभूतस्वरूपास्तित्वनिश्चितत्वात् तथाविधपुद्गलद्रव्यं त्वनेकप
१. पुम्गलदव्वरुपग त्ति (ज. ३०)। २. पुग्गलदव्वं (ज. व.)।