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[ पबयणसारो
तथापि वे जीव अपनी ही भीतरी सुख दुःख आदि रूप परिणति के हो अशुद्ध उपादान कारण हैं, पृथ्वी आदि कायों में परिणमन किये हुए पुद्गलों के नहीं। कारण यह है कि उनका उपादानकारण पुद्गल के स्कंध स्वयं ही हैं। इसलिये यह जाना जाता है कि पुद्गल के पिंडों का कर्ता जीव नहीं है ॥१६७॥ अथात्मनः पुद्गलपिण्डानेतृत्वाभावमवधारयति
ओगाढगाढणिचिदो पुग्गलकायेहि सव्वदो लोगो। सुहुमेहिं बादरहिं य अप्पाओग्हिं जोग्गेहिं ॥१६८॥ ___ अवगाढगावनिचित: पुद्गलकार्यः सर्वतो लोकः ।
सूक्ष्मै दरैश्चाप्रायोग्यर्योग्यैः ॥१६८|| यतो हि सूक्ष्मत्वपरिणतैर्वादरपरिणतश्चानतिसूक्ष्मत्वस्थूलत्वात् कर्मत्यपरिणमनशक्तियोगिभिरतिसूक्ष्मस्थूलतया। तदयोगिभिश्चावगाहविशिष्टत्वेन परस्परमवाधमानः स्वयमेव सर्वत एव पुद्गलकार्यगढिं निचितो लोकः। ततोऽवधार्यते न पुद्गलपिण्डानामानेता पुरुषोऽस्ति ॥१६॥
भूमिका-अब यह निश्चित करते हैं कि आत्मा पुद्गल पिण्डों का लाने वाला नहीं है
अन्वयार्थ-[लोकः] यह लोक [सर्वतः] सर्वत्र [सूक्ष्मः वादरः] सूक्ष्म तथा बादर [च] और [अप्रायोग्यः योग्यैः] कर्मत्व के अयोग्य तथा योग्य [पुद्गलकायैः] पुद्गल स्कंधों के द्वारा [अवगा ढगाढनिचितः] (विशिष्ट प्रकार से) अवगाहित होकर अत्यन्त गाढ भरा हुआ हैं।
टीका—चंकि, सूक्ष्मरूप परिणत तथा बादररूप परिणत-अतिसूक्ष्म अथवा अतिस्थूल न होने से-कर्मरूप परिणत होने की शक्ति वाले, तथा अतिसूक्ष्म अथवा अतिस्थूल होने से कर्मरूप परिणत होने की शक्ति से रहित ऐसे पुदगल स्कंधों के द्वारा, अवगाह की विशिष्टता के कारण परस्पर बाधक हुये बिना स्वयमेव सर्वत्र हो लोक गाढ़ भरा हुआ है, इसलिये निश्चित होता है कि प्रदाल पिण्डों का लाने वाला आत्मा नहीं है ॥१६॥
तात्पर्यवृत्ति अथात्मा बन्धकाले बन्धयोग्यपुद्गलान् वर्भािगान्नं वानयतीत्यावेदयवतिः
ओगाढगाणिचिदो अवगाह्याबगाह्यनरन्तर्येण निचितो भृतः । स कः ? लोगो लोकः । कथंभूतः ? सम्बदो सर्वत: सर्वप्रदेशेषु कैः कर्तु भूतैः ? पुग्गलकार्यहि पुद्गल कायैः । किविशिष्ट: ? सुहुमेहिं बादरेहि य इन्द्रियाग्रहणयोग्त्रैः सूक्ष्मैस्तद्ग्रहणयोग्य दरैश्च । पुनश्च कथंभूतैः ? अप्पाओग्गेहि