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पवयणसारो ]
[ ४०७ नहीं परिणमाता है। इस कथन से यह दिखलाया गया है कि यह जीव कर्म स्कंधों का कर्ता नहीं है ॥१६६॥ अथात्मनः कर्मस्वपरिणतपुद्गलद्रव्यात्मकशरीरकर्तृत्वाभावमवधारयति
ते ते कम्मत्तगदा पोग्गलकाया' पुणो वि जीवस्स । संजायते देहा देहतरसंकमं पप्पा ॥१७॥
ते ते कर्मत्वगताः पुद्गलकायाः पुनरपि जीवस्य ।
संजायन्ते देहा देहान्तरसंक्रमं प्राप्य ॥१७॥ ये ये नामामी यस्य जीवस्य परिणाम निमित्तमात्रीकृत्य पुद्गलकायाः स्वयमेव कर्मत्वेन परिणमन्ति, अथ ते से तस्य जीवस्यानाक्सिंतानप्रवृत्तिशरीरान्तरसंक्रान्सिमाश्रित्य स्वयमेव च शरीराणि जायन्ते । अतोऽवधार्यते न कर्मत्वपरिणतपुद्गलद्रव्यात्मकशरीरकर्ता पुरुषोऽस्ति ॥१७०॥
_भूमिका—अब, आत्मा के कर्मरूप-परिणत-पुदगलबध्यात्मक-शरीर के कर्तृत्व का अमाव निश्चित करते हैं (अर्थात् यह निश्चित करते हैं कि कर्मरूप परिणत पुद्गलद्रव्यस्वरूप शरीर का कर्ता आत्मा नहीं है)
__अन्वयार्थ--[कर्मत्वगताः] कर्मरूप परिणत [ते ते] वे वे [पुद्गलकायाः] पुद्गल पिंड [देहान्तरसंक्रमं प्राप्य ] देहान्तररूप परिवर्तन को प्राप्त करके [पुनः अपि] पुनः पुनः [जीवस्य] जीव के [देहः] शरीर सिंजायन्ते ] होते हैं।
टीका—जिस जीव के परिणाम को निमित्तमात्र करके जो-जो यह पुद्गल पिण्ड स्वयमेव कर्मरूप परिणत होते हैं, वे जीव के अनादिसंततिरूप प्रयतमान देहान्तर (भवांतर) रूप परिवर्तन का भाश्रय लेकर ( वे वे पुद्गलपिण्ड) स्वयमेव शरीररूप, शरीर के होने में निमित्तरूप बनते हैं । इससे निश्चित होता है कि कर्मरूप परिणत पुद्गलद्रव्यात्मक शरीर का कर्ता आत्मा नहीं है।
भावार्थ--जीव के परिणाम को निमित्तमात्र करके जो पुद्गल स्वयमेव कर्मरूप परिणत होते हैं वे पुद्गल ही अन्य भव में शरीर के बनने में निमित्तभूत होते हैं और नोकर्मयुद्गल स्वयमेव शरीररूप परिणमित होते हैं इसलिये शरीर का कर्ता आत्मा नहीं है ॥१७॥
तात्पर्यवसि अथ शरीराकारपरिणतपुद्गलपिण्डानां जीवः कर्ता न भवतीत्युपदिशतिते ते कम्मत्तगदा ते ते पूर्वसूत्रोदिताः कर्मत्वं गता द्रव्यकर्मपर्यायपरिणताः पुग्गलकाया पुद्गल१. पुग्गलकाया (ज)।