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पक्यणसारो ]
[ ३६३ अथ केवलपुद्गलमुख्यत्वेन नवगाथापर्यन्तं व्याख्यानं करोति । तत्र स्थलद्वयं भवति । परमाणूनां परस्परवन्धकथनार्थं "अपदेसो परमाण" इत्यादि प्रथमस्थले गाथाचतुष्टयम् । तदनन्तरं स्कंधानां बन्धमुख्यत्वेन "दुपदेसादी खंधा" इत्यादिद्वितीयस्थले गाथापञ्चकम् । एवं द्वितीयविशेषान्तराधिकारे समुदायपातनिका।
उत्थानिका-आगे फिर दिखाते हैं कि इस आत्मा के जैसे शरीर रूप पर द्रव्य का अभाव है वैसे उसके कर्तापने का भी अभाव है।
अन्वय सहित विशेषार्थ-(णाहं पुग्गलमइओ) मैं पुद्गलमयी नहीं है (ते पुग्गला पिडं मया ण कया) तथा वे पुद्गल के पिंड जिन से मन वचन काय बनते हैं, मेरे से बनाए हुए नहीं हैं (तम्हा) इसलिये (हि) निश्चय से (अहं देहो ण) मैं शरीररूप नहीं हैं (वा तस्स देहस्स कत्ता) और न उस देह का बनाने वाला है। मैं शरीर नहीं है क्योंकि मैं वास्तव में शरीर रहित सहज ही शुद्ध चैतन्य की परिणति का रखने वाला हूँ इससे मेरा और शरीर का विरोध है। और न मैं इस शरीर का कर्ता है क्योंकि मैं क्रियारहित परम चैतन्य ज्योतिरूप परिणति का ही का हूं, मेरा कर्तापना वेह के कर्तापन से विरोधरूप है ।।१६२॥
. इस तरह मन वचन काय का शुद्धात्मा के साथ भेद है, ऐसा कथन करते हुए चौथे स्थल में तीन गाथायें पूर्ण हुई। इस तरह पूर्व में कहे प्रमाण "अत्थित्तणिच्छिवस्स हिं" इत्यादि ग्यारह गाथाओं से चौथे स्थल में प्रथम विशेष अन्तर अधिकार पूर्ण हुआ ।
अब केवल पुद्गल की मुख्यत्ता से नव (६) गाथा तक व्याख्यान करते हैं। इसमें दो स्थल हैं। परमाणुओं में परस्पर बंध होता है इस बात के कहने के लिये "अपदेसो परमाण' इत्यादि पहले स्थल में गाथाएं चार हैं। फिर स्कंधों के बंध को मुख्यता से दुपदेसादी खंधा” इत्यादि दूसरे स्थल में गाथा पांच हैं। इस तरह दूसरे विशेष अन्तर अधिकार में समुदायपातनिका है। अथ कथं परमाणुद्रव्याणां पिण्डपर्यायपरिणतिरिति संदेहमपनुवति
अपदेसो परमाणू पदेसमेत्तो य सयमसद्दो जो। णियो वा लुक्खो वा दुपदेसावित्तमणुभववि' ॥१६॥
अप्रदेशः परमाणुः प्रदेशमात्रश्च स्वयम शब्दो यः ।
स्निग्धो वा रूक्षो वा द्विप्रदेशादित्वमनुभवति ।।१६३।। परमाणुहि धादिप्रदेशानामभावावप्रदेशः, एकप्रदेशसभावात्प्रदेशमात्रः, स्वयमनेकपरमाणुद्रव्यात्मकशब्दपर्यायव्यक्त्यसंभवावशवश्च । यत्तश्चतुःस्पर्शपञ्चरसतिगन्धपञ्चवर्णा
१. दुपदेसादित्तमणुषदि (ज• वृ०)।