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पवयणसारो ]
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पर्यायस्तत्त्रयात्मकं या पूर्वोत्तरव्यतिरेकस्पशिना चेतनत्येन स्थितिर्यायुत्तरपूर्वव्यतिरेकत्वेन चेतनस्योत्पादव्ययों तत्त्रयात्मकं च स्वरूपास्तित्वं यस्य नु स्वभावोऽहं स खल्वयमन्यः ।
वाचेतनत्वान्यलक्षणं द्रव्यं योऽचेतना विशेषत्वलक्षणो गुणो योऽचेतनत्वव्यतिरे कलक्षणः पर्यावस्तत्रयात्मकं या पूर्वोत्तरव्यतिरेकस्पर्शनाचेतनत्वेन स्थितिर्यात्तरपूर्वव्यतिरेकत्वेनाचेतनस्योत्पादव्ययौ तत्त्रयात्मकं च स्वरूपास्तित्वं यस्य तु स्वभावः पुद्गलस्य स खल्ब यमन्यः । नास्ति मे मोहोऽस्ति स्वपरविभागः । । १५४ ।।
भूमिका – अब, आत्मा की अन्य द्रव्य के साथ संयुक्तता होने पर भी, अर्थ- निश्चायक ( स्वरूप ) अस्तित्व को स्व-पर विभाग के हेतु रूप से समझाते हैंअन्वयार्थ -- [ यः ] जो जीव [ तं] उस ( पूर्वोक्त ) [ सद्भावनिबद्ध] अस्तित्व निष्पन्न, [ विधा समाख्यातं ] तीन प्रकार से कथित, [सविकल्पं ] भेदों वाले [ द्रव्यस्वभावं ] द्रव्य स्वभाव को [ जानाति ] जानता है, [सः ] वह [ अन्य द्रव्ये ] अन्य द्रव्य में [ न मुह्यति ] मोह को प्राप्त नहीं होता || १५४ ||
टीका - जो, द्रव्य को निश्चित करने वाला, स्वलक्षण भूत स्वरूप अस्तित्व कहा गया है । वह वास्तव में द्रव्य का स्वभाव ही है, क्योंकि द्रव्य का स्वभाव अस्तित्व से निष्पन्न ( अस्तित्वका बना हुआ) हैं । द्रव्य गुण-पर्याय रूप से तथा ध्रौव्य-उत्पाद - व्ययरूप से त्रात्मक भेद-भूमिका में आरूढ द्रव्य स्वभाव ज्ञात होता हुआ, पर द्रध्य में मोहको दूर करके स्व-पर के विभाग का हेतु होता है, इसलिये स्वरूप अस्तित्व ही स्व-पर के विभाग की सिद्धि के लिये पद-पद पर अवधारित करना (लक्ष्य में लेना ) चाहिये । वह इस प्रकार है
(१) चेतनत्व का अन्वय जिसका लक्षण है ऐसा द्रव्य (२) चेतनाविशेषत्व जिसका लक्षण है ऐसा गुण, और चेतनत्व का व्यतिरेक जिसका लक्षण है ऐसी पर्याय -- यह त्रयात्मक (ऐसा स्वरूप - अस्तित्व ), तथा ( १ ) पूर्व और उत्तर व्यतिरेक को स्पर्श करने वाले चेतनत्यरूप से जो धौव्य और ( २-३) चेतन के उत्तर तथा पूर्व व्यतिरेक रूप से जो उत्पाद और व्यय, यह प्रयात्मक स्वरूप अस्तित्व जिसका स्वभाव है ऐसा मैं वास्तव में यह अन्य हूँ, ( अर्थात् मैं पुद्गल से ये भिन्न रहा ।) और ( १ ) अचेतनत्व का अन्वय जिसका लक्षण है ऐसा द्रव्य, (२) अचेतना विशेषत्य जिसका लक्षण है ऐसा गुण, और (३) अचेतनत्व का व्यतिरेक जिसका लक्षण है ऐसी पर्याय -- यह त्रयात्मक ( ऐसा स्वरूप अस्तित्व) तथा ( १ ) पूर्व और उत्तर व्यतिरेक को स्पर्श करने वाले अचेतनत्व रूप से जो