________________
पवयणसारो ]
[
३८५
निश्चयव्यवहारपञ्चाचारादियथोक्तलक्षणानाचार्योपाध्यायसाधुन् । जीवेसु साणुकंपो सस्थावरजीवेषु सानुकम्पः सदयः उवओगो सो सुहो स इत्यंभूत उपयोगः शुभो भण्यते । स च कस्य भवति ? तस्स तस्य पूर्वोक्तलक्षणजीवस्येत्यभिप्रायः ।।१५७11
उत्थानिका—आगे विशेष करके शुभोपयोग का स्वरूप कहते हैं
अन्वय सहित विशेषार्य--(जो) जीव (जिणिदे) जिनेन्द्रों को (जाणादि) जानता है (सिद्धे) सिद्धों को (पेच्छदि) देखता है। (तहेव) तैसे ही (अणगारे) साधुओं का दर्शन करता है (य) और (जीवे साण कम्पा) जीवों पर दया भाव रखता है (तस्स) उस जीव का (सो उवओगो) बह उपयोग (सुहो) शुभ है । जो भव्यजीव अरहंतों को ऐसा जानता है कि वे अनन्तज्ञान आदि चतष्टय के धारी हैं तथा क्षधा आदि अठारह दोषों से रहित है तथा सिद्धों को ऐसा देखता है कि वे ज्ञानावरणादि आठ कर्म रहित हैं तथा सम्यक्त्व आदि आठ गुणों में अंतर्भूत अनन्तगुण सहित हैं तसे ही अनगार शब्द से कहने योग्य निश्चय व्यवहार पंच आचार आदि शास्त्रोक्त लक्षण के धारी आचार्य, उपाध्याय तथा साधुओं को भक्ति करता है और बस स्थावर जीवों की क्या पालता है उस जीव के ऐसा व इसी जाति का उपयोग शुभ कहा जाता है ॥१५७॥ अथाशुभोपयोगस्वरूपं प्ररूपयति
विसयकसाओगाढो दुस्सुविदुच्चित्तदुगोठ्ठिजुदो । उग्गो उम्मग्गपरो उवओगो जस्स सो असुहो ॥१५॥ ___ विषयकषायावगाढो दुःश्रुतिदुश्चित्तदुष्टगोष्ठियुतः ।।
उग्र उन्मार्गपर उपयोगो यस्य सोऽशुभः ॥१५८11 विशिष्टोवयवशाविश्रान्तदर्शनचारित्रमोहनीयपुद्गलानुवृत्तिपरत्वेन परिग्रहीताशीमनोपरागत्वात्परमभट्टारकमहादेवाधिवेवपरमेश्वराह सिद्धसाधूभ्योऽन्यत्रोन्मार्गश्रद्धाने विषयकषायदुःश्रवणदुराशयदुष्टसेवनोग्रताचरणे च प्रवृत्तोऽशुभोपयोगः ॥१५८॥
भूमिका-अब अशभोपयोग का स्वरूप कहते हैं :--
अन्वयार्थ-[यस्य उपयोगः] जिसका उपयोग [विषयकषायावगाढः विषय कषाय में अवगाढ (मग्न) है, [दुःश्रुतिदुश्चित्तदुष्टगोष्ठियुतः] कुश्रुति, कुविचार और कुसंगति में लगा हुआ है, [उग्न:] (कषायों की तीव्रता में अथवा पापों में उद्यत) है तथा [उन्मार्गपरः] उन्मार्ग में लगा हुआ है, [स: अशुभः] उसका वह उपयोग अशुभ है।
टीका-विशिष्ट उदयदशा में रहने वाले दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीयरूप पुद्गलों के अनुसार परिणति में लगा होने से अशुभोपराग के ग्रहण करने से, जो (उपयोग)