________________
३८४ ]
[ पवश्रणसारो
अर्थ --- पूर्व में बांधा हुआ अशुभकर्म दुःख पैदा करता है जबकि शुभकर्म सुख पैदा करता है, ऐसा जानकर जो इस अशुभ को नाश करने के भाव से तप करते हैं और समता तथा संयम रूप हो जाते हैं ऐसे योगी भी दुर्लभ हैं। परन्तु जो पुण्य पाप दोनों ही प्रकार के कर्मों के नाश में लवलीन हैं उन योगियों की तो बात ही क्या कहनी ।
इस तरह शुभ, अशुभ, शुद्ध उपयोग का सामान्य कथन करते हुए दूसरे स्थल में दो गाथाएं समाप्त हुईं।
अथ शुभोपयोगस्वरूपं प्ररूपयति-
जो जाणादि जिणिदे पेच्छदि सिद्धे तहेव अणगारे ।
जीवेसु साणुर्कशे उबओगो सो सुहो तस्स ॥ १५७॥ यो जानाति जिनेन्द्रान् पश्यति सिद्धांस्तथैवानागारान् ।
जीवेषु सानुकम्प उपयोगः स शुभस्तस्य ॥। १५७ ।।
विशिष्टक्षयोपशम दशाविश्रान्त दर्शनचारित्रमोहनीयपुद्गलानुवृत्तिपरत्वेन परिग्रहीत शोमनोपरागत्वात् परमट्टारक महादेवाधिदेवपरमेश्वराहंत्सिद्धसाधुश्रद्धाने समस्त भूतग्रामानुकम्पाचरणे च प्रवृत्तः शुभ उपयोगः ॥ १५७ ॥
भूमिका -- अब शुभोपयोग का स्वरूप कहते हैं :--
अन्वयार्थ – [ यः ] जो [ जिनेन्द्रान, सिद्धान् तथैव अनागारा ] अर्हन्तों, सिद्धों तथा अनगारों (आचार्य, उपाध्याय, सर्वसाधुओं) को [ जानाति, पश्यति ] जानता है और श्रद्धा करता है, [ जीवेषु सानुकम्पः ] और जीवों के प्रति अनुकम्पायुक्त है, [तस्य ] उसका [सः उपयोगः ] वह उपयोग [ शुभ:] शुभ है |
टोका - - विशिष्ट क्षयोपशमदशा में रहने वाले दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय रूप पुद्गलों के अनुसार परिणति में लगा होने से शुभ उपराग का ग्रहण करने से, जो ( उपयोग ) परमभट्टारक महादेवाधिदेव, परमेश्वर अहंत, सिद्ध और साधु की श्रद्धा करने में तथा समस्त जीव समूह की अनुकम्पा का आचरण करते में प्रवृत्त है, वह शुभोपयोग ।। १५७ ॥
तात्पर्यवृत्ति
अथ विशेषेण शुभोपयोगस्वरूपं व्याख्याति---
जो जाणादि जिणिवे यः कर्ता जानाति । कानू ? अनन्तज्ञानादिचतुष्टय सहितान् क्षुधाद्यष्टाददोषरहितांश्च जिनेन्द्रान् पेच्छवि सिद्धे पश्यति । कान् ? ज्ञानावरणाद्यष्टकर्म र हितान्सम्यक्त्वाद्यष्टगुणान्तर्भूतानन्तगुणसहितांश्च सिद्धान् तहेव अणगारे तथैवानागारान् । अनागारशब्दवाच्या