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पवयणसारो ]
[ ३७३ स्यागता है। इससे यह सिद्ध हुआ कि इन्द्रिय आदि प्राणों की उत्पत्ति का अंतरंग कारण देह आदि में ममत्व करना ही है ॥१५०॥ अथ पुद्गलप्राणसंततिनिवृत्तिहेतुमन्तरङ्ग ग्राहयति
जो इंदियादिविजई भवीय उवओगमप्पगं झादि । कहिं मो ण रंजदि' किह तं पाणा अणुचरंति ॥१५१।।
य इन्द्रियादिविजयी भूत्वोपयोगमात्मकं ध्यायति ।
कर्मभिः स न रज्यते कथं तं प्राणा अनुचरन्ति ।।१५।। पुद्गलप्राणसंततिनिवृत्तेरन्तरङ्गो हेतुहि पौद्गलिककर्ममूलस्योपरक्तत्वस्यामावः । स तु समस्तेन्द्रियादिपरद्रव्यानुवृत्तिविजयिनो भूत्वा समस्तोपाश्रयानुवृत्तिव्यावृत्तस्य स्फटिकमणेरिवात्यन्त विशुद्धमुपयोगमात्रमात्मानं सुनिश्चलं केवलमधियसतः स्यात् । इदमत्र तात्पर्य आत्मनोऽत्यातविमक्तसिद्धये व्यवहारजीवत्वहेतवः पुगलनाणा एवमुच्छेत्तव्याः ॥१५१॥
भूमिका–अब पौद्गलिक प्राणों की संतति को निवृत्ति का अन्तरंग हेतु समझाते हैं
अन्वयार्थ-[यः] जो [इन्द्रियादिविजयीभूत्वा] इन्द्रियादि का विजयी होकर [उपयोगात्मक उपयोगमयी आरू को [यातिj ध्याता है, [सः] वह [कर्मभिः] कर्मों के द्वारा [न रज्यते] रंजित नहीं होता, [तं] उसे [प्राणाः] प्राण [कथं] कैसे [अनुचरंति] अनुसरण कर सकते हैं ? (अर्थात् उससे प्राणों का संबंध नहीं होता ।)
टीका–वास्तव में पौद्गलिक प्राणों की संतति को निवृत्ति का अंतरङ्ग हेतु पौद्गलिक कर्म है मूल जिसका, ऐसी उपरक्तता का अभाव है। समस्त इन्द्रियादिक पर द्रव्यों के अनुसार परिणति का विजयी होकर, (अनेक वर्णों वाले) आश्रयानुसार होने वाली सारी परिणति से व्यावृत (पृथक् ) हुये स्फटिकमणि की भांति, अत्यन्त विशुद्ध उपयोगमात्र अकेले आत्मा में सुनिश्चलतया बसने वाले (जीय) के वह (अभाव) होता है।
यहाँ यह तात्पर्य है कि--आत्मा की अत्यन्त विभक्तता सिद्ध करने के लिये व्यवहार जीयत्व के हेतुभूत पौद्गलिक प्राण इस प्रकार उच्छेद करने योग्य हैं ॥१५१॥
तात्पर्यवृत्ति अथेन्द्रियादिप्राणानामभ्यन्तविरंनाशकारणमावेदयति
ओ इंदियादिविजई भवीय यः कर्तातीन्द्रियात्मोत्थसुखामृतसन्तोषबलेलेन जितेन्द्रियत्न निकषायनिर्मलानुभूतिबलेन कषायजयेन पञ्चेन्द्रियादिविजयीभूत्वा उवओगमप्पगं मादि केवलज्ञान
१. रज्जदि (त. वृ०)।