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पवयणसारो ]
अयमत्रार्थः - - यथा कोऽपि तप्तलोहपिण्डेन परं हन्तुकामः सन् पूर्वं तावदात्मानमेव हन्ति पश्चादयघाते नियमो नास्ति तथायमज्ञानी जीवोऽपि तप्तलोहपिण्डस्थानीयमोहादिपरिणामेन परिणतः सन् पूर्वं निर्विकारस्त्रसंवेदनज्ञानस्वरूपं स्वकीयशुद्धप्राणं हन्ति पश्चादुत्तरकाले परप्राणघाते नियमो नास्तीति ॥ १४६॥
उत्थानिका— आगे प्राण नवीन कर्म पुद्गल के बन्ध के कारण होते हैं, इसी ही पूर्वोक्त कथन को विशेषता से कहते हैं
अन्वय सहित विशेषार्थ -- (जदि) जब ( जीवो) यह जीव ( मोहपदेसेहि) मोह और द्वेष के कारण ( जीवाणं पाणायार्थ ) अपने और परजीवों के शानों को बाधा ( कुणदि) पहुँचाता है तब (हि) निश्चय से इसके ( सो बंधो) वह बन्ध ( णाणावरणादिकम्मे हि) ज्ञानावरणी आदि कर्मों से (हवदि) होता है। जब यह जीव सर्व प्रकार निर्मल केवलज्ञानरूपी दीपक से मोह के अंधकार को विनाश करने वाले परमात्मा से विपरीत मोहभाव और द्वेषभाव से परिणमन करके अपने भाव और द्रव्य प्राणों को घातता हुआ एकेन्द्रिय आदि जीवों के भाव और आयु आदि द्रव्य प्राणों को पोड़ा पहुंचाता है तब इसका ज्ञानावरणादि कर्मों के साथ बंध होता है जो बंध अपने आत्मा की प्राप्ति रूप मोक्ष से विपरीत है तथा मूल और उत्तर प्रकृतियों के भेद से अनेक रूप है । इससे जाना गया कि प्राण पुद्गल कर्मबंध के कारण होते हैं ।
यहां यह भाव है कि जैसे कोई पुरुष दूसरे को मारने की इच्छा से गर्म लोहे के पिंड को उठाता हुआ पहले अपने को ही कष्ट दे लेता है फिर अन्य का घात हो सके इसका कोई नियम नहीं है, तैसे यह अज्ञानी जीव भी तप्त लोहे के स्थान में मोहावि परिणामों से परिणमन करता हुआ पहले अपने ही निविकार स्वसंवेदन ज्ञानस्वरूप शुद्ध प्राण को घातता है उसके पीछे दूसरे के प्राणों का घात हो या न हो ऐसा कोई नियम नहीं है ॥ १४६ ॥
अथ पुद्गलप्राणसन्ततिप्रवृत्तिहेतुमन्तरङ्गमासूत्रयति -
आदा कम्ममलिमसो धरेदि पाणे पुणो पुणो अण्णे ।
ण चयदि जाव ममत्तं' देहपधाणेसु विसयेसु ॥ १५० ॥ आत्मा कर्ममलीमसो धारयति प्राणान् पुनः पुनरन्यान् 1 न त्यजति यावन्ममत्वं देहप्रधानेसु विषमेषु ।। १५० ।। येयमात्मन: पौद्गलिकप्राणानां संतानेन प्रवृत्तिः तस्था अनादिपौद्गलकर्म मूलं शरीरादिममत्वरूपमुपरक्तत्वमन्तरङ्गो हेतुः ॥ १५० ॥
१. ममत्त (ज० वृ० ) | २. पहाणे ( ज० वृ० ) ।