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पवयणसारो ]
[ ३६६ अन्वयार्थ—[मोहादिकैः कर्मभिः] मोहादिक कमों से [बद्धः] बंधा हुआ होने से [जीवः] जीव [प्राणनिबद्धः] प्राणों से संयुक्त होता हुआ [कर्मफलं उपभुजानः] कर्मफल को भोगता हुआ [अन्यः कर्मभिः ] अन्य (नवीन) कर्मों से [बध्यते] बन्धता है।
टीका—(१) क्योंकि मोहादिक पोद्गलिक कर्मों से बंधा हुआ होने से जीव प्राणों से संयुक्त होता है और (क्योंकि) (२) प्राणों से संयुक्त होने के कारण पौदगलिक कर्मफल को भोगता हुआ पुनः भी अन्य पौद्गलिक कर्मों से बंधता है, इसलिये (१) पौद्गलिक कर्म के कार्य होने से और (२) पौद्गलिक कर्म के कारण होने से प्राण पौगलिक ही निश्चित होते हैं ॥१४॥
तात्पर्यवति अथ प्राणानां यत्पूर्वसूत्रोदितं पोद्गलिकत्वं तदेव दर्शयति
जीवो पाणणिबद्धो जीवः कर्ता चतुभिःप्राणनिबद्धःसम्बद्धो भवति । कथंभूतः सन् ? बद्धो शुद्धात्मोपलम्भलक्षणमोक्षादिविलक्षणैर्बद्धः । कैद्ध: ? मोहादिरहि कम्मेहिं मोहनीयादिकर्मभिर्बद्धस्ततो ज्ञायते मोहादिकर्मभिर्बद्धः सन् प्राणनिबद्धो भवति, न च कर्मबन्धरहित इति । तत एव ज्ञायते प्राणाः पुद्गलकार्मोदयजनिता इति । तथाविधः सन् किंकरोति ? उवभुजदि कम्मफलं परमसमाधिसमुत्पन्ननित्यानन्देशाग सुम्बामृतभोजन मलमपातः सा कदकविसमानमपि कर्मफलमुपभुक्त । वादि अण्णेहि कम्मेहि तत्कर्मफलमुपभुजानः सन्नयं जोत्रः वार्मरहितात्मनो विसदृशैरन्यकर्मभिनवतरकर्मभिर्बध्यते । यतः कारणात्कर्मफलं भुजानो नवतरकर्माणि बध्नाति, ततो ज्ञायते प्राणा नवतरपुद्गलकर्मणां कारणभूता इति ।।१४।।
उत्थानिका--आगे प्राण पौगलिक हैं, जैसा पहले कहा है उसी को दिखाते हैं
अन्वय सहित विशेषार्थ—(मोहादिएहि कम्मेहि) मोहनीय आदि कर्मों से (बद्धो) बंधा हआ (जीवो) जीव (पाणणिबद्धो) चार प्राणों से सम्बन्ध करता है (कम्मफलं उवभंजदि) व कर्मों के फल को भोगता हुआ (अण्णेहि कम्मेहिं बज्झदि) अन्य नवीन कमो से बंध जाता है । शुद्धात्मा की प्राप्तिरूप मोक्ष आदि शुद्ध भावों से विलक्षण मोहनीय आदि आठ कर्मों से बंधा हुआ यह जीव इन्द्रिय आदि प्राणों को पाता है । जिसके कर्मबन्ध नहीं होते उसके यह चार प्राण भी नहीं होते हैं, इसी से यह जाना जाता है कि ये प्राण पुदगल कर्म के उदय से उत्पन्न हुए हैं तथा जो इन बाह्य प्राणों को रखता है वही परम समाधि से उत्पन्न जो नित्यानन्दमयी एक सुखामृत का भोजन उसको न भोगता हुआ इन इन्द्रियादि प्राणों से कड़वे विष के समान ही कमों के फलरूप सुख दुःख को भोगता है और वही जीव कर्मफल भोगता हुआ कर्म-रहित आत्मा से विपरीत अन्य नवीन कर्मों से बंध जाता है, इसी से जाना जाता है कि ये प्राण नवीन पुद्गल कर्म के कारण भी हैं ॥१४॥