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[ पवयणसारो तात्पर्यवृत्ति अथ प्राणशब्दव्युत्पत्त्या जीवस्य जीवत्वं प्राणानां पुद्गलस्वरूपत्वं च निरूपयति
पाणेहि चहि जीविदि यद्यपि निश्चयेन सत्ताचैतन्यसुखबोधादिशुद्धभावप्राणीवति तथापि व्यवहारेण वर्तमानकाले द्रव्यभावरूपेश्चतुभिरशुद्धप्राणैर्जीवति जीवस्सदि जीविष्यति भाविकाले जो हि जोविदो यो हि स्फुटं जीवितः पुरवं पूर्वकाले सो जीवो स जीवो भवति ते पाणा ते पूर्वोक्ताः प्राणाः पुगलदध्येहि णिवत्ता उदयागतपुद्गलकर्मणा निर्वृत्ता निष्पन्ना इति । तत एव कारणात्पुद्गलद्रव्यविपरीतादनन्तज्ञानदर्शनसुखबीयांधनन्तगुणस्वभावात्परमात्मतत्त्वाद्भिन्ना भावयितव्या इति भावः ।।१४७१।
उत्थानिका---आगे प्राण शब्द की व्युत्पत्ति करके जीव का जीवएना और प्राणों का पुद्गल स्वरूपपना कहते हैं
___ अन्वय सहित विशेषार्थ-(जो हिं) जो कोई वास्तवमें (चउहि पाहि) चार प्राणों से (जीवदि) जीता है, (जीविस्सदि) जीवेगा च (पुध जीविदो) पहले जीता था (सो जीबो) वह जीव है (ते) वे (पाणा) प्राण (पुग्गलवव्येहि) पुद्गल द्रव्यों से (णिव्यत्ता) रचे हुए हैं । यद्यपि यह जीव निश्चयनय से सत्ता, चैतन्य, सुख, ज्ञान आदि शुद्ध भावप्राणों से जीता है, जोता था तथा जीता रहेगा तथापि व्यवहारनय से यह ससारी जीव इस अनादि संसार में जैसे वर्तमान में द्रव्य और भावरूप अशुद्ध प्राणों से जीता है, ऐसे ही पहले जीता था अथवा जब तक संसार में है जीता रहेगा, क्योंकि ये अशुद्ध प्राण उदय प्राप्त पुदगल कर्मों से रचे गए हैं इसलिये ये प्राण पुद्गल द्रव्य से विपरीत अनन्तज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्तसुख, अनन्तवीर्य आदि अनन्तगुण स्वभावधारी परमात्म-तत्व से भिन्न हैं ऐसी भावना करनी योग्य है, यह भाव है ॥१४७॥ अथ प्राणानां पौद्गलिकत्वं साधयति
जीवो पाणणिबद्धो बद्धो मोहादिएहि कम्महि । उवभुजं' कम्मफलं बज्झदि अण्णेहि कम्मेहिं ॥१४॥
जीवः प्राणनिबद्धो बद्धो मोहादिकः कर्मभिः ।
उप जानः कर्मफलं बध्यतेऽन्पैः कर्मभिः ।।१४।। यतो मोहादिभिः पौद्गलिककर्मभिर्बद्धत्वाज्जीवः प्राणनिबद्धो भवति । यतश्च प्राणनिबद्धत्वात्पौद्गलिककर्मफलमुपभुजानः पुनरप्यन्यैः पोद्गलिककर्मभिर्बध्यते । ततः पौद्गलिककर्मकार्यत्वात्पोद्गलिककर्मकारणत्वाच्च पोद्गलिका एव प्राणा निश्चीयन्ते ॥१४॥
भूमिका-अब, प्राणों को पौद्गलिकता सिद्ध करते हैं
१. उब जदि (ज० वृ०)।