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पवयणसारो ]
[ २१६ सदा पाए जाते हैं, तैसे ही सर्व द्रव्य अपने-अपने सामान्य विशेष गुणो से अभिन्न हैं, इसलिये सब द्रव्य गुणरूप होते हैं । (पुणो) तथा (तेहिं पज्जाया) उन्हीं पूर्व में कहे हुए लक्षण स्वरूप द्रव्य व गुणों से पर्यायें होती हैं जो एक दूसरे से भिन्न अथवा क्रम-क्रम से हों, उनको पारीक रहते हैं, गन पनि का लक्षण है। जैसे एक सिद्ध भगवानरूपी द्रव्य में अन्तिम शरीर से कुछ कम आकारमयी, गति मार्गणा से विलक्षण सिद्धगति रूप पयायें, है तथा अगुरुलघु गुण में षट्गुणी वृद्धि तथा हानिरूप साधारण स्वाभाविक गुण पर्याये, स्वजातीय विभाव द्रव्य पर्यायें तैसे ही स्वाभाविक और वैभाविक गुण पर्यायें होती हैं।" "जेसि अस्थिसहाओ" इत्यादि गाथा में तथा "भावा जीवादीया" इत्यादि गाथा में श्री पंचास्तिकाय के भीतर पहले कथन किया गया है सो वहाँ से यथासम्भव जान लेना योग्य है। (पज्जय मूढा) जो इस प्रकार द्रव्य गुण पर्याय के ज्ञान से मूढ़ हैं अथवा मैं नारकी आदि पर्यायरूप सर्वथा नहीं है इस भेदविज्ञान को अथवा अनेकान्त को न समझकर अज्ञानी हैं वे (हि) वास्तव में (परसमया) परात्मवादी मिथ्यादृष्टी हैं। इसलिये यही जिनेन्द्र परमेश्वर की करी हुई समीचीन द्रव्यगुण पर्याय की व्याख्या कल्याणकारी है, यह अभिप्राय है ॥६३॥
अयानुषङ्गिकीमिमामेव स्वसमयपरसमयव्यवस्था प्रतिष्ठाप्योपसंहरति
जे पज्जयेसु गिरदा जीवा 'परसमग ति णिद्दिट्ठा । आदसहावम्मि ठिदा ते सगसमया "मुणेदव्वा ॥६॥
ये पर्यायेषु निरता जीवाः परसमयिका इति निर्दिष्टाः ।
आत्मस्वभावे स्थितास्ने स्वकसमया ज्ञातव्याः ।।६४॥ ये खलु जीवपुद्गलात्मकमसमानजातीयद्रव्यपर्यायं सकलाविद्यानामेकमूलमुपगता यथोवितात्मस्वभावसंभावनक्लीबास्तस्मिन्नेवाशक्तिमुपब्रजन्ति, ते खलूच्छलितनिरर्गलंकान्तवृष्टयो मनुष्य एवाहमेष ममैवतन्मनुष्यशरीरमित्यहङ्कारममकाराभ्यां विप्रलभ्यमाना अविचलितचेतनाविलासमात्रादात्मव्यवहारात प्रच्युत्य कोडोकृतसमस्तक्रियाकुटुम्बकं मनुव्यवहारमाश्रित्य रज्यन्तो द्विषन्तश्च परद्रध्येण कर्मणा संगतत्वात्परसमया जायन्ते । ये तु पुनरसंकीर्णद्रव्यगुणपर्यायसुस्थितं भगवंतमात्मनः स्वभावं सकलविद्यानामेकमूलभुपगम्य अथोदितात्मस्वभावसंभावनसमर्थतया पर्यायमात्राशक्तिमत्यस्यात्मनः स्वभाव एव स्थितिमासूत्रयन्ति, ते खलु सहजविजृम्भितानेकान्तदृष्टिप्रक्षपितसमस्तैकान्तदृष्टिपरिग्रहग्रहा
१. परसमयिग ति । २. मुणेयङ्मा (ज० ब०)।