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पवयणसारो ]
[ ३०५ ___ आत्मपरिणामो हि तावत्स्वयमानमेव, परिगामिनः परिणामस्वरूपकर्तृत्वेन परिणामादनन्यत्वात् । यश्च तस्य तथाविधः परिणामः सा जीवमय्येव क्रिया, सर्वव्याणां परिणामलक्षणकियाया आत्ममयत्वाभ्युपगमात् । या च क्रिया सा पुनरात्मना स्वतन्त्रेण प्राप्यत्वात्कर्म । ततस्तस्य परमार्थादात्मा आत्मपरिणामात्मकस्य भावकर्मण एच कर्ता, न तु पुद्गलपरिणामात्मकस्य द्रव्यकर्मणः। अथ द्रव्यकर्मणः कः कर्तेति चेत् ? पुद्गलपरिणामो हि तावत्स्वयं पुद्गल एव, परिणामिनः परिणामस्वरूपक वेन परिणामादनन्यत्वात् । यश्च तस्य तथाविधः परिणामः सा पुद्गलमय्येव किया, सर्वव्याणों परिणामलक्षणक्रियाया आत्ममयत्वाभ्युपगमात् । या च क्रिया सा पुन: पुद्गलेन स्वतन्त्रेण प्राप्यत्वात्कर्म । ततस्तस्य परमार्थात् पुद्गलात्मा आत्मपरिणामात्मकस्य द्रव्यकर्मण एवं कर्ता, न त्वात्मपरिणामात्मकस्य भावकर्मणः तत आत्मात्मस्वरूपेण परिणमति न पुद्गलस्वरूपेण परिणमति ॥१२२॥
भूमिका-अब, परमार्य से आत्मा के द्रव्यकर्म का अकर्तृत्व प्रकाशित करते हैं (निश्चय से आत्मा द्रव्यकर्म का कर्ता नहीं है ऐसा प्रगट करते हैं)---
अन्वयार्थ--[परिणामः] परिणाम [स्वयम्] स्वयं [आत्मा] आत्मा है, [सा पुनः] और वह [जीवमयी क्रिया इति भवति] जीवमय क्रिया है, [क्रिया] क्रिया को [कर्म इति मता| कर्म माना गया है, [तस्मात् ] इसलिये आत्मा [कर्मणः कर्ता तु न] द्रव्यकर्म का कर्ता तो नहीं है।
टीका-प्रथम तो आत्मा का परिणाम वास्तव में स्वयं आत्मा ही है, क्योंकि परिणामी के परिणाम के स्वरूप का कर्त्तापना होने से, अनन्यपना है। जो उस (आत्मा) का तथाविध परिणाम है, वह जीवमयो ही क्रिया है, क्योंकि सर्व द्रव्यों की परिणाम लक्षण वाली क्रिया आत्ममयता (निजमयता) से स्वीकार की गई है जो (जोवमयी) किया है, वह, आत्मा के द्वारा स्वतन्त्रतया प्राप्य होने से, कर्म है। इसलिये परमार्थ से आत्मा अपने परिणाम स्वरूप भावकर्म का ही कर्ता है, किन्तु पुद्गल परिणाम स्वरूप द्रव्यकर्म का नहीं।
अब यहां यह प्रश्न होता है कि '(जीव भावकर्म का ही कर्ता है तब फिर) द्रव्य कर्म का कर्ता कौन है ?' इसका उत्तर इस प्रकार है—प्रथम तो पुद्गल का परिणाम वास्तव में स्वयं पुद्गल ही है, क्योंकि परिणामी के, परिणाम के स्वरूप का कर्तापना होने से अनन्यपना है। जो उस (पुद्गल) का तथाविध परिणाम है, वह पुद्गलमयो ही