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पवयणसारो ]
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क्योंकि, वह क्रिया जीव के द्वारा की गई है इसलिये जोवनयी है (किरिया कम्मत्ति मदा) तथा जो क्रिया है उसी को जीव का कर्म ऐसा माना है ( लम्हा कम्मस्स ण दु कत्ता ) इसलिये यह आत्मा द्रव्यकर्म का कर्ता नहीं है ।
आत्मा का जो परिणाम होता है वह आत्मा ही है क्योंकि परिणाम और परिणामी तन्मय होते हैं । इस परिणाम को ही क्रिया कहते हैं क्योंकि यह परिणाम जीव से उत्पन्न हुआ है। जो क्रिया जीवने स्वाधीनता से शुद्ध या अशुद्ध उपादानकारण रूप से प्राप्त की है वह क्रिया जीव का कर्म है यह सम्मत है। यहां कर्म शब्द से जोब से अभिन्न चैतन्य कर्म को लेना चाहिये। इसी को भावकर्म या निश्चयकर्म भी कहते हैं । इस कारण यह यहां यह सिद्ध हुआ कि यद्यपि जीव कथंचित् परितथापि निश्चय से यह जीव अपने परिणामों का हो कर्मों का कर्त्ता है
आत्मा द्रव्यकर्मो का कर्ता नहीं है। णामी है इससे जीव के कर्तापना है कर्ता है, व्यवहार मात्र से ही पुद्गल उपादान रूप से शुद्धोपयोग रूप से परिणमन करता है तब
।
इनमें से भी जब यह जीव शुद्ध मोक्ष को साधता है और जब । इसी तरह पुद्गल भी जीव
अशुद्ध उपादान रूप से परिणमता है तब बन्ध को साधता के समान निश्चय से अपने परिणामों का ही कर्ता है। व्यवहार से जीव के परिणामों का कर्त्ता है, ऐसा जानना ॥१२२॥
इस तरह रागादि भाव कर्मबंध के कारण हैं उन्हीं का कर्ता जीव है, इस कथन मुख्यता से दो गाथाओं में तीसरा स्थल पूर्ण हुआ ।
की
अथ किं तत्स्वरूपं येनात्मा परिणमतीति तदावेदयति
परिणमदि चेदणाए आवा पुण चेदणा तिधा भिमदा |
सा पुण जाणे कम्मे फलम्सि वा कम्मणो भणिदा ॥ १२३ ॥
परिणमति चेतनया आत्मा पुनः चेतना त्रिधाभिमता ।
सा पुनः ज्ञाने कर्मणि फले वा कर्मणो भणिता ॥ १२३ ॥
यतो हि नाम चैतन्यमात्मनः स्वधर्मव्यापकत्वं ततश्चेतनैवात्मनः स्वरूपं तथा खल्वात्मा परिणमति । यः कश्चनाध्यात्मनः परिणामः स सर्वोऽपि चेतनां नातिवर्तत इति तात्पर्यम् । चेतना पुनर्ज्ञानकर्मकर्मफलत्वेन त्रेधा । तत्र ज्ञानपरिणतिर्ज्ञानचेतना, कर्मपरिणतिः कर्मचेतना, कर्मफलपरिणतिः कर्मफलचेतना ॥ १२३ ॥
भूमिका – अब, यह कहते हैं कि वह कौन सा स्वरूप है जिसरूप आत्मा परिणमित होती है ? -