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पवयणसारो ]
अर्थ विकल्प को ज्ञानचेतना कहते हैं। इस जीव ने अपनी बुद्धिपूर्वक मन वचन काय के व्यापार रूप से जो कुछ करना प्रारम्भ किया हो उसको कर्म कहते हैं। यही कर्मचेतना है । सो कर्मचेतना शुभोपयोग, अशुभोपयोग और शुद्धोपयोग के भेद से तीन प्रकार की कही गई । सुख तथा दुःख को कर्म का फल कहते हैं उसको अनुभव करना तो कर्मफलचेतना है । विषयानुराग रूप जो अशुभोपयोग लक्षण कर्म है उसका फल अति आकुलता को पैदा करने वाला नारक आदि का दुःख है। धर्मानुराग रूप जो शुभोपयोग लक्षण कर्म है उसका फल चक्रवर्ती आदि पंचेन्द्रियों के भोगों का भोगना है। यद्यपि इसको अशुद्धनिश्चयनय से सुख कहते हैं तथा यह आकुलता की उत्पन्न करने वाला होने से शुद्धनिश्चयनय से दुःख ही है । और जो रागादि रहित शुद्धोपयोग में परिणमन रूप कर्म है उसका फल अनाकुलता को पैदा करने वाला परमानन्दमयी एक रूप सुखामृत का स्वाद है। इस तरह ज्ञानचेतना, कर्म चेतना और कर्मफलचेतना स्वरूप जानना चाहिये ॥१२४।। अथ ज्ञानकर्मकर्मफलान्यात्मत्वेन निश्चिनोति
अप्पा परिणामप्पा परिणामो णाणकम्मफलभावी। तम्हा जाणं कम्म फलं च आदा मुणेदवो ॥१२॥
आत्मा परिणामात्मा परिणामी ज्ञानकर्मफलभावी ।
तस्मात् ज्ञानं कर्म फलं चात्मा ज्ञातव्यः ।।१२५।। आत्मा हि तावत्परिणामात्मैव, परिणामः स्वयमात्मेति स्वयमुक्तत्वात् । परिणामस्तु चेतनात्मकत्वेन ज्ञानं कर्म कर्मफलं वा भवितुं शीलः, तन्मयत्याच्चेतनायाः। ततो ज्ञान कर्म कर्मफलं चात्मय। एवं हि शुद्धद्रव्यनिरूपणायां परद्रव्यसंपर्कासंभवात्पर्यायाणां द्रव्यान्तःप्रलयाच्च शुद्धद्रव्य एवात्मावतिष्ठते ॥१२॥
भूमिका-अब ज्ञान, कर्म और कर्मफल को आत्मा रूप से निश्चित करते हैं
अन्वयार्थ— [आत्मा परिणामात्मा] आत्मा परिणाम स्वभाव वाली है, [परिणामः] परिणाम [ज्ञानकर्मफलभावो] ज्ञान रूप, कर्मरूप और कर्मफलरूप होता है, [तस्मात् | इसलिये [ज्ञान, कर्म, फलं च] ज्ञान, कर्म और कर्मफल [आत्मा ज्ञातव्यः] आत्म-स्वरूप समझने चाहिये।
टीका-प्रथम तो आत्मा वास्तव में परिणाम स्वरूप ही है, क्योंकि 'परिणाम स्वयं आत्मा है, ऐसा (१२२ वी गाथा में भगवत् कुन्दकुन्दाचार्य देव ने) स्वयं कहा है। परिणाम तो चेतना स्वरूप होने से ज्ञान, कर्म और कर्मफल रूप होने के स्वभाव वाला