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पवयणसारो ]
[ ३५१ तात्पर्यवत्ति अथ पूर्वं यत्सुचितं प्रदेशस्वरूपं तदिदानी विवृणोति -
आयासमणुणिविट्ठ आकाशं अणुनिविष्टं पुद्गलपरमाणुध्याप्तम् । आयासपदेससण्णया भणियं आकाशप्रदेशसंज्ञया भणितं कथितम् । सन्वेसि च अणूणं सर्वेषामणूनां चकारात्सूक्ष्मस्कन्धानां च सक्कदि तं देदुमवासं शक्नोति स आकाश प्रदेशो दातमवकाशम् । तस्याकाशप्रदेशस्य यदीत्थंभूतमबकाशदानसामर्थ्य न भवति तदानन्तानन्तो जीवराशिस्तस्मादप्यनन्तगुणपुद्गलराशिश्चासंख्येयप्रदेशलोके कथमवकाशं लभते ? तच्च विस्तरेण पूर्व भणितमेव ।
अथ मतं -अखण्डाकाशद्रव्यस्य प्रदेश विभागः कथं घटते ? परिहारमाह-चिदानन्दैकस्वभावनिजात्मतत्वपरमैकाग्रयलक्षणसमाधिसंजातनिविकारालादैकरूपसुखसुधारसास्वादतृप्तमुनियुगलस्यावस्थितक्षेत्र किमेकमनेकं वा ? यद्येक तहि द्वयोरप्येकत्वं प्राप्नोति न च तथा । भिन्नं चेत्तदा अखण्डस्याप्याकाशद्रव्यप्रदेश विभागो न विरुध्यत इत्यर्थः ॥१४०।।
उत्थानिका~आगे जिसका पहले कथन किया है उस प्रदेश का स्वरूप कहते हैं
अन्वय सहित विशेषार्थ-(अणुणिविठं आयासं) अविभागी पुद्गलके परमाणु द्वारा व्याप्त जो आकाश है उसको (आयासपदेससण्णया) आकाश के प्रदेश की संज्ञा से (भणियं) कहा गया है । तथा (तं) वह प्रदेश (ससि च अणूणं) सर्व परमाणु तथा सूक्ष्म स्कंधों को (अयकासं दे सक्कदि) जगह देने को समर्थ है । एक परमाणु द्वारा व्याप्त आकाश के प्रदेश में यदि इतनी जगह देने की शक्ति नहीं होती कि वह अन्य परमाणुओं को व सूक्षम पदार्थों को जगह दे सकता है, तो यह अनन्तानन्त जीवराशि और उससे भी अनन्तगुणी पुद्गलराशि किस तरह असंख्यातप्रदेशी लोकाकाश में जगह पाती, इसको बिस्तार से पहले कह चुके हैं ।
शंका-अखंड आकाश द्रव्य के भीतर प्रदेशों का विभाग कसे सिद्ध हो सकता है ?
समाधान-चिदानन्दमयो एक स्वभावरूप निज आत्मतत्त्व में परम एकाग्रता लक्षण समाधिसे उत्पन्न विकार-रहित आल्हावमयी एक रूप, सुख, अमृत रस के स्वाद में तुप्त दो मुनियों के जोड़े का ठहरने का क्षेत्र एक है वा अनेक है ? यदि एक ही स्थान है तब यो मुनियों का एकत्व हो जायगा, सो ऐसा नहीं है। और यदि उनका क्षेत्र भिन्न-भिन्न है तब अखंड आकाश के भी प्रदेशों का विभाग करने में कोई विरोध नहीं आता है ॥१४०।।
अथ तिर्यमूर्ध्वप्रथयावावेदयति
एक्को व दुगे बहुगा संखातीदा तदो अणंता य । दव्वाणं च पदेसा संति हि समय त्ति कालस्स ॥१४॥