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[ पवयणकारी
स्वलक्षणे वस्तुस्वरूप भूततया सर्वदानपायिनि निश्चयजीवत्वे सत्यपि संसारावस्थायामनाविवाहप्रवृत्तपुद्गल संश्लेषदूषितात्मतया प्राणचतुष्काभिसंबद्धत्वं व्यवहारजीवत्व हेतु विभक्तव्योऽस्ति ।। १४५
भूमिका – अब इस प्रकार ज्ञेयत्व को कहकर, ज्ञान और ज्ञेय के विभाग द्वारा आत्मा को निश्चित करते हुये, आत्मा को अत्यन्त विभक्त ( भित्र) करने के लिये व्यवहार जीवत्थ के हेतु का विचार करते हैं
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अन्वयार्थ -- [ सप्रदेश: अर्थैः ] सप्रदेश पदार्थों के द्वारा [निष्ठितः ] समाप्ति को प्राप्त' [समग्रः लोकः ] सम्पूर्ण लोक [ नित्य: ] नित्य है, [तं ] उसे [यः जानाति ] जो जानता है [ जीवः ] यह जीव है, [ प्राणचतुष्काभिसंबद्धः ] जो कि ( संसार दशा में ) चार प्राणों से संयुक्त है ।
टीका - इस प्रकार जिन्हें प्रदेश का सद्भाव फलित हुआ है ऐसा आकाश पदार्थ से लेकर काल पदार्थ तक के सभी पदार्थों से समाप्ति को प्राप्त जो समस्त लोक हैं, उसको वास्तव में, उसमें अन्तर्भूत होने पर भी, स्वपर को जानने को अचिन्त्यशक्तिरूप सम्पत्ति के द्वारा जीव ही जानता है, दूसरा कोई नहीं। इस प्रकार शेष द्रव्य ज्ञेय ही हैं और जीवद्रव्य तो ज्ञेय तथा ज्ञान है, - इस प्रकार ज्ञान और ज्ञेय का विभाग है। अब, सहजरूप से ( स्वभाव से ही ) प्रगट अनन्तज्ञानशक्ति जिसका हेतु है और तीनों काल में अवस्थायित्व जिसका लक्षण है ऐसे वस्तु का स्वरूपभूत होने से सर्वदा अविनाशी निश्चयजीवत्व होने पर भी, संसारावस्था में अनादिप्रवाहरूप से प्रवर्तमान मुद्गल संश्लेष के द्वारा स्वयं दूषित होने से इस जीव के चार प्राणों से संयुक्तता है, जो कि व्यवहारजीवत्व का हेतु है, और विभक्त करने योग्य है ।। १४५ ।।
तात्पर्यवृत्ति
अथ ज्ञानज्ञेयज्ञापनार्थं तथैवात्मनः प्राणचतुष्केन सह भेदभावनार्थ वा सूत्रमिदं प्रतिपादयतिलोगो लोको भवति । कथंभूतः ? गिट्ठवो निष्ठितः समाप्ति नीतो भृतो वा । केः कर्तृभूतैः ? अहं सहजशुद्धबुद्धकस्वभावो योऽसौ परमात्मपदार्थस्तत्प्रभृतयो येऽर्थस्तैः । पुनरपि किविशिष्ट: ? सपदे से हि समग्गो स्वकीय प्रदेशः समग्रः परिपूर्णः । अथवा पदार्थः कथंभूतैः ? सप्रदेश: प्रदेशसहितैः । पुनरपि किविशिष्टो लोकः ? णिच्चो द्रव्यार्थिकनयेन नित्यः लोकाकाशापेक्षया वा । अथवा नित्यो न केनापि पुरुषविशेषेण कृतः जो तं जाणवि यः कर्ता तं ज्ञेयभूतलोकं जानाति जीवो स जीवपदार्थो भवति । एतावता किमुक्त' भवति योऽसौ विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावो जीवः स ज्ञानं ज्ञेयश्च भण्यते । पदार्थास्तु ज्ञेया एवेति ज्ञातृज्ञेयविभागः । पुनरपि किविशिष्टो जीवः ? पाणचक्केण संबद्धो यद्यपि
१. छह द्रव्यों से ही सम्पूर्ण लोक समाप्त हो जाता है, अर्थात् उनके अतिरिक्त लोक में दूसरा कुछ नहीं है ।