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[ पवयणसारो किन्त पुद्गल के न्यास्यान में प्रदेश गन्द से परमाणु ग्रहण करने योग्य हैं, क्षेत्र के प्रदेश नहीं क्योंकि पुद्गलों का स्थान अनन्त प्रदेश वाला क्षेत्र नहीं है। (सर्व पुद्गल असंख्यात प्रदेश वाले लोकाकाश में हैं। उनके स्कंध अनेक जाति के बनते हैं-संख्यात परमाणुओं के, असंख्यात परमाणुओं के तथा अनन्त परमाणुओं के स्कंध बनते हैं वे सूक्ष्म परिणमन वाले भी होते हैं इससे लोकाकाश में सब रह सकते हैं।) एक पुद्गल के अविभागी परमाणु में प्रगट रूप से एक प्रदेशपना है. मात्र शक्तिरूप से उपचार से बहादेशीपना है। क्योंकि वे परस्पर मिल सकते हैं)। आकाशदथ्य के अनन्त प्रदेश हैं । कालद्रव्य के बहुत प्रदेश नहीं है। हरएक कालाण कालद्रव्य है सो एक प्रदेश मात्र है। कालाणुओं में परमाणुओं को तरह परस्पर सम्बन्ध करके स्कंध को अवस्था में बदलने की शक्ति नहीं है ॥१३॥ अथ तमेवार्थ दढयति--
एदाणि पंचदव्याणि उझियकालं तु अत्थिकायत्ति । भण्णते काया पूण बप्पदेसाण पचयत्तं ॥१३५-१॥ एतानि पंचद्रव्याणि उज्झितकालंतु अस्तिका इति ।
भण्यंते कायाः पुनः बहुप्रदेशानां प्रचयत्वं ॥१३५-१॥ एदाणि पंचदवाणि एतानि पूर्वसूत्रोक्तानि जीवादिषड्व्याण्येव उज्यिकालं तु कालद्रव्यं विहाय अत्थिकायत्ति भण्णते अस्तिकायाः पंचास्तिकाया इति भण्यन्ते काया पुण कायाः कायशब्देन पुनः । कि भण्यते ? बहुप्पदेसाण पचयत्तं बहुप्रदेशानां सम्बन्धि प्रचयत्वं समूह इति । अत्र पंचास्तिकायमध्ये जीवास्तिकाय उपादेयस्तथापि पंचरमेष्ठिपर्यायावस्था तस्यामप्यहत्सिद्धावस्था तत्रापि सिद्धावस्था । वस्तुतस्तु रागादिसमस्तविकल्पजालपरिहारकाले सिद्धजीवसदृशा स्वकीयशुद्धात्मावस्थेति भावार्थः ।।१३५॥
एवं पंचास्तिकायसंक्षेपसूचनरूपेण चतुर्थस्थले गाथाद्वयं गतम् ।। उत्थानिका-आगे ऊपर के ही भाव को दृढ़ करते हैं....
अन्वय सहित विशेषार्थ- (एदाणि दत्वाणि) इन छः द्रव्यों में से (उजिमय कालं तु) काल द्रव्य को छोड़कर (पंच अस्थिकात्ति) शेष पांच द्रव्य पांच अस्तिकाय हैं ऐसा (भण्णते) कहा है (पुण) तथा (बहुप्पदेसाण पचयत्तं काया) बहुत प्रदेशों के समूह को काय कहते हैं । इन पांच अस्तिकायों के मध्य में एक जीव अस्तिकाय ही ग्रहण करने योग्य है । उनमें भी अहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु पांच परमेष्ठी की अवस्था, इनमें से भी अरहंत और सिद्ध अवस्था, फिर इनमें से भी मात्र सिद्ध-अवस्था ग्रहण करनी योग्य है । वास्तव में तो या निश्चयनय से तो रागद्वेषादि सर्व विकल्पजालों के त्याग के समय में सिद्ध जीव के समान अपना ही शुद्धात्मा ग्रहण करने योग्य है, यह भाव है । १३५-१॥
___इस प्रकार पांच अस्तिकाय को संक्षेप में सूचना करते हुए चौथे स्थल में वो गाथाएं पूर्ण हुई।