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पवयणसारो ।
[ ३५ अथ ज्ञानकर्मकर्मफलस्वरूपमुपवर्णयति
णाणं अट्ठवियप्पो' कम्मं जीवेण जं समारद्धं । तमणेगविध भणिदं फलं ति सोक्खं व दुक्खं वा ॥१२४॥ ज्ञानमर्थविकल्पः कर्म जीवेन यत्समारब्धम् ।
तदनेकविध भणितं फलमिति सौख्यं बा दुःखं वा ।।१२४॥ अर्थविल्कपस्तावत् ज्ञानम् । तत्र कः खल्वर्थः, ? स्वपरविभागेनावस्थितं विश्वं, विकल्पस्तदाकारावभासनम् । यस्तु मुकुरुन्दहृदयाभोग इव युगपदवभासमानस्वपराकारोयविकल्पस्तद् ज्ञानम् । क्रियमाणमात्मना कर्म, क्रियमाणः खल्वात्मा प्रतिक्षणं तेन तेन भावेन भवता यः तद्धावः स एव कर्मात्मना प्राप्यत्वात् । तत्त्वेकविधमपि द्रन्यकर्मोपाधिसन्निधिसद्भावासद्धावाभ्यामनेकविधम् । तस्य कर्मणो यन्निष्पाद्य सुखदुःखं तत्कर्मफलम् । तत्र यदव्यकर्मोपाधिसान्निध्यासद्भावात्कम तस्य फलमनाकुलत्वलक्षणं प्रकृतिभूतं सौख्यं, यत्तु द्रव्यकर्मोपाधिसान्निध्यसद्धावात्कर्म तस्य फलं सौख्यलक्षणाभावाद्विकृति भूतं दुःखम् । एवं ज्ञानकर्मकर्मफलस्वरूपनिश्चयः ॥१२४॥
भुमिका--अब ज्ञान, कर्म और कर्म फल का स्वरूप वर्णन करते हैं
अन्वयार्थ- [अर्थविकल्पः] अर्थ विकल्प (अर्थात् स्व-पर पदार्थों का भिन्नता पूर्वक युगपत् अवभासन) [ज्ञानं] ज्ञान है, [जीयेन ] जीव के द्वारा [यत् समारब्ध] जो किया जा रहा हो वह [कर्म] कर्म है, [तत् अनेकविधं] वह कर्म अनेक प्रकार का है, [सौख्यं वा दुःखं वा] सुख अथवा दुःख [फलं इति भणितम्] कर्मफल कहा गया है।
टीका-प्रथम तो, अर्थविकल्प ज्ञान है। वहीं, अर्थ क्या है ? स्व-परके विभागपूर्वक अवस्थित विश्व अर्थ (समस्त पदार्थ) है। उसके आकारों का अवमासन (प्रकाशित होना) विकल्प है। और दर्पण के निज विस्तार की भांति (अर्थात् जैसे दर्पण के निज विस्तार में स्व और पर आकार एक ही साथ प्रकाशित होते हैं; उसी प्रकार) जिसमें एक ही साथ स्व-परा-कार अवमासित होते हैं, ऐसा मर्थ-विकल्प ज्ञान है। जो आत्मा के द्वारा किया जाता है वह कर्म है। क्रिया करती हुई आत्मा वास्तव में प्रतिक्षण उनउन भावरूप होती है। जो वह भाव है वही, आत्मा के द्वारा प्राप्य होने से, कर्म है। वह (कर्म) एक प्रकार का होने पर भी द्रव्यकर्मरूप उपाधि को निकटता के सद्भाव और असद्भाव के कारण अनेक प्रकार का है।
१. अवियप्पं (ज० वृ०)। २. तमणेगविहं (ज० बृ०)। ३. भणिय (ज० वृ०)।