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स्वयणसारो ।
[ ३३३ समुद्घातादन्यत्र लोकासंख्येयभागमात्रत्वाज्जीवस्य लोकालोकसीम्नोऽचलितत्वादाकाशस्य विरुद्धकार्यहेतुत्वादधर्मस्यासंभन्नहर्ममधिगमयति । तथैकवारमेय स्थितिपरिणतसमस्तजीवपुरगलानामालोकात्स्थानहेतुत्वमप्रदेशत्वात्कालपुद्गलयोः, समुद्घातादन्यत्र लोकासंस्पेयभागमात्रत्वाज्जीवस्य, लोकालोकसीम्नोऽचलितत्वादाकाशस्य, विरुद्धकार्यहेतुत्वाद्धर्मस्य चासम्भवदधर्ममधिगमयति । तथा अशेषशेषद्व्याणां प्रतिपर्यायं समयवृत्तिहेतुत्वं कारणान्तरसाध्यत्वात्समयविशिष्टाया वृत्तः स्वतस्तेषामसंभवत्कालमधिगमयति । तथा चैतन्यपरिणामश्चेतनत्वादेव शेषद्रव्याणामसंभवन् जीवमधिगमयति । एवं गुणविशेषाद्वव्यविशेषोऽधिगन्तव्यः ॥१३३।१३४॥
भूमिका-अब, शेष अमूर्तद्रव्यों के गुण कहते हैं
अन्वयार्थ—[आकाशस्यावगाहः) आकाश का अवगाह, [धर्मद्रव्यस्य गमनहेतुत्वं] धर्मद्रव्य का गमनहेतुत्व [तु पुनः] और [ धमतरद्रव्यस्य गुणः] अधर्म द्रव्य का गुण [स्थानकारणता] स्थान कारणता है। [कालस्य] काल का गुण [वर्तना स्यात्] वर्तना है, [आत्मनः गुणः] आत्मा का गुण | उपयोगः इति भणितः] उपयोग कहा है। [ मूर्तिप्रहीणानां गुणा: हि] इस प्रकार अमूर्तद्रव्यों के गुण [संक्षेपात्] संक्षेप से [जेयाः] जानने चाहिये।
टीका-युगपत् सर्वद्रव्यों के साधारण अवगाह का हेतुत्व आकाश का विशेष गुण है । एक ही साथ गतिरूप परिणमित सर्व जीव-पुद्गलों के गमन का हेतुत्व धर्म का विशेष गुण है। एक ही साथ स्थितिरूप परिणमित सर्व जीव-पुद्गलों के स्थिर होने का हेतुत्व अधर्म का विशेष गुण है। (काल के अतिरिक्त) शेष समस्त द्रव्यों की प्रति-पर्याय में समयवृत्ति का हेतुत्व (समय-समय की परिणति का निमित्तत्व) काल का विशेष गुण है। चैतन्यपरिणाम जीय का विशेष गुण है । इस प्रकार अमूर्तद्रव्यों के विशेषगुणों का संक्षिप्त ज्ञान होने पर अमूर्तद्रव्यों को जानने के लिंग (चिन्ह, लक्षण, साधन) प्राप्त होते हैं, अर्थात् उन-उन विशेष गुणों के द्वारा उन-उन अमूर्त द्रव्यों का अस्तित्व ज्ञात होता हैसिद्ध होता है । (इसी को स्पष्टता-पूर्वक समझाते हैं
वहां एक ही काल में समस्त द्रव्यों को साधारण अवगाह का संपादन (अवगाह हेतुत्व रूप लिंग) आकाश को ज्ञात कराता है, क्योंकि शेष द्रव्यों के सर्वगत-पना न होने से उनके वह (अवगाह-संपादन) संभव नहीं है। इसी प्रकार एक ही काल में गति-परिणत समस्त जीव-पुद्गलों को लोक तक गमन का हेतुत्व धर्म को ज्ञात कराता है, क्योंकि काल