________________
२६६ ।
[ पवयणसारो मोती के रूप में ऐसे तीन प्रकार से विस्तारित की जाती है, उसी प्रकार एक द्रव्य-द्रव्य के रूप में, गुण के रूप में और पर्याय के रूप में-ऐसे तीन प्रकार से विस्तारित किया जाता है।
और जैसे एक मोतियों को माला का शुक्लत्व गुण शुक्ल हार, शुक्ल धागा, और शक्ल मोती,-यों तीन प्रकार से विस्तारित किया जाता है, उसी प्रकार से द्रव्य का सत्तागुण-सत् द्रव्य, सत्गुण और सतपर्याय,-यों तीन प्रकार से विस्तारित किया जाता है।
तथा जैसे मोतियों की माला में जो शुक्लत्व गुण है वह हार नहीं है, धागा नहीं है या मोती नहीं है, और जो हार, धागा या मोती है वह शुक्लत्व गुण नहीं है, इस प्रकार एक दूसरे में जो 'उसका अभाव, (अर्थात 'तप होने का अभाव' है) वह 'तद्अभाव' लक्षण वाला 'अतद्भाव' है, जो कि अन्यत्व का कारण है। इसी प्रकार एक द्रव्य में जो सत्ता गुण है वह द्रव्य नहीं है, अन्य गुण नहीं है, या पर्याय नहीं है, और जो द्रव्य अन्य गुण या पर्याय है वह सत्ता गुण नहीं है,- इस प्रकार एक-दूसरे में जो 'उसका अभाव' (अर्थात् 'तद्रूप होने का अभाव है) वह 'तद् अभाव' लक्षण वाला 'अतदभाव, है जो कि अन्यत्व का कारण है॥१०७॥
___ तात्पर्यवृत्ति अथातद्भावं विशेषेण विस्तार्य कथयति..
सद्दब्वं सम्च गुणो सच्चेव य पज्जओत्ति वित्थारो सद्रव्यं संशच गुणः संश्चैव पर्याय इति सत्तागुणस्य द्रव्यगुणपर्यायेषु विस्तारः । तथाहि यथा मुक्ताफलहारे सत्तागुणस्थानीयो योऽसौ शुक्लगुणः स प्रदेशाभेदेन किं कि भण्यते ? शुक्लो हार इति शुक्लं सूत्रमिति शुक्लं मुक्ताफलमिति भण्यते, यश्च हारः सूत्रं मुक्ताफलं वा तस्त्रिभिः प्रदेशाभेदेनेन शुक्लो गुणो भण्यत इति तद्भावस्य लक्षणमिदं । तद्भावस्येति कोर्थः ? हारसूत्रमुक्ताफलानां शुक्लगुणेन सह तन्मयत्वं प्रदेशाभिन्नत्वमिति तथा मुक्तात्मपदार्थे योऽसौ शुद्धसत्तागुणः स प्रदेशाभेदेन कि कि भण्यते ? सत्तालक्षणः परमात्मपदार्थ इति, सत्तालक्षणः केवलज्ञानादिगुण इति, सत्तालक्षणः सिद्धपर्याय इति भण्यते । यश्च परमात्मपदार्थः केवलज्ञानादिगुणः सिद्धस्त्वपर्याय इति तैश्च त्रिभिः शुद्धसत्तागुणो भय्यत इति तद्भावस्य लक्षणमिदम् ।
तद्भावस्येति कोऽर्थः ? परमात्मपदार्थकेवलज्ञानादिगुणसिद्धत्वपर्यायाणां शुद्धसत्तागुणेन संज्ञादिभेदेपि प्रदेशस्तन्मयत्वमपि जो खलु तस्स अभावो यस्तस्य पूर्वोक्तलक्षणत'भावस्य स्खलु स्फुट संज्ञादिभेदविवक्षायामभावः सो तदभावो स पूर्वोक्तलक्षणस्तदभावो भण्यते । म च तदभावः कि भण्यते ? "अतभावो" तदभावस्तन्मयत्वं । किञ्चातभाव: संज्ञालक्षणप्रयोजनादिभेदः इत्यर्थः ।
तद्यथा- यथा मुक्ताफलहारेयोऽसौ शुक्लग णस्तद्वाचकेन शवलमित्यक्षरद्वयेन हारो वाच्यो न भबति सूध वा मुक्ताफलं वा, हारसूत्रमूक्ताफल शब्दश्च शुक्लगणो वाच्यो न भवति । एवं परस्पर प्रदेशाभेदेऽपि योऽसौ संज्ञादिभेद; स तस्य पूर्वोक्तलक्षणतद्भावस्याभावस्तद्भावो भण्यते । म च तद्भावः पुनरपि