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मायणसारो ।
[ २७६ उत्पाद है क्योंकि पूर्व पर्याय नष्ट हो गई और नई पर्याय पैदा हुई । तैसे ही यदि म्यार्षिकनय के द्वारा विचार किया जावे तो जो आत्मा पहले गृहस्थ अवस्था में जो-जो
का व्यापार करता था वही पोछे जिनदीक्षा लेकर निश्चयरत्नश्यमयी परमात्मा के शान से अनन्त सुखामृत में तृप्त रामचंद्र आदि केवलो पुरुष हुआ अन्य कोई नहीं-यह भए उत्पाद है। क्योंकि पुरुष की अपेक्षा नष्ट नहीं हुआ। और जब पर्यायाथिकनय की अक्षा की जाती है तब पहली जो सराग-अवस्था थी उससे यह भरत, सगर, रामचंद्र,
व आदि केवली पुरुषों की जो वीतरागपरमात्म-पर्याय है सो अन्य है, वही नहीं हैहै असत् उत्पाद है । क्योंकि पूर्व पर्याय से यह अन्य पर्याय है। जैसे यहां जीव द्रव्य में
उत्पाद और असत् उत्पाद का व्याख्यान किया गया तसा सर्व द्रव्यों में यथासंभव जान लेना चाहिये ॥१११॥ 1 मय सदुत्पादमनस्यत्वेन निश्चिनोति1 जीवो भवं भविस्सदि णरोऽमरो वा परो भवीय पुणो ।
कि दवत्तं 'पजहवि ण 'जहं अण्णो कहं होदि' ॥११२॥
जीवो भवन भविष्यति नरोऽमरो वा परो भूत्वा पुनः ।
कि द्रव्यत्वं प्रजहाति न जदन्यः कथं भवति ।।११२।। व्यं हि ताबद्रव्यल्वभूतामन्वयक्ति नित्यमप्यपरित्यजति सदेव । यस्तु द्रव्यस्य ताया व्यतिरेकच्यक्तेः प्रादुर्भावः, तस्मिन्नपि द्रव्यत्वभूताया अन्वयशक्तेरप्रयवनात लस्योग । ततोऽनत्यत्वेन निश्चीयते द्रव्यस्य सदुत्पादः । तथाहि-जीयो द्रव्यं भवसिग्मनुष्यदेवसिद्धस्वानामन्यतमेन पर्यायेण द्रव्यस्य पर्यायदुर्ललितवृत्तित्वादवश्यमेव पति । स हि भूत्वा च तेन कि द्रव्यत्वभूतामन्वयशक्तिमुज्झति, नोति । यदि गति रुषमम्पो नाम स्यात्, येन प्रकटितत्रिकोटिसत्ताकः स एष न स्यात् ॥११२॥ ₹ भूमिका-अब, (सर्व पर्यायों में द्रव्य अनन्य है अर्थात द्रव्य यह ही रहता हैसे उसके सत् उत्पाद है, इस प्रकार) सत्-उत्पाद को अनन्यत्व के द्वारा निश्चित
अबपार्ष-[जीवः] जोब [भवन्] परिणमित होता हुआ [नरः] मनुष्य, । देव [वा] अथवा [परः] अन्य (तिर्यंच, नारकी या सिद्ध) [भविष्यति] होगा, परन्तु [भूत्वा] मनुष्य देवादि होकर [किं] क्या वह [द्रव्यत्वं प्रजहाति] द्रव्यत्व १. पचयदि इति पाठान्तरम् । २. जहदि (ज० ५०) चयदि। ३. बदि (ज० बृ.) ।