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[ पबयणसारो करता है ऐसा जो सांख्यमत कहता है उसका निषेध इस गाथा में है, क्योंकि अशुद्धनय से जो जीव मिथ्यात्व व रागावि विभावों में परिणमन करते हैं उन्हीं को नर नारक आदि पर्यायों की प्राप्ति है, ऐसा देखा जाता है।
अथ मनुष्यादिपर्यायाणां जीवस्य क्रियाफलत्वं व्यनक्ति
कम्मं णामसमक्खं सभावमध' अप्पणो सहावेण । अभिभूयं परं तिरियं रइयं वा सुरं कुणदि ॥११७॥
कर्म नामसमाख्यं स्वभावमथात्मन: स्वभावेन ।
___ अभिभूय नरं तिर्यंचं नैरयिक वा सुरं करोति ।।११७।। क्रिया खल्वात्मना प्राप्यत्वाकर्म, तन्निमित्तप्राप्तपरिणामः पुद्गलोऽपि कर्म, तत्कार्यभूता मनुष्यादिपर्याया जीवस्य क्रियाया मूलकारणभूतायाः प्रवृत्तत्वात कियाफलमेव स्युः । क्रियाऽभावे पुद्गलानां फर्मत्वाभावात्तत्कार्यभूतानां तेषामभावात् । अथ कथं ते कर्मणः कार्यभावमायान्ति, कर्मस्वभावेन जीवस्वभावमभिभूय क्रियमाणत्वात् प्रदीपयत् । तथाहि—यथा खलु ज्योति-स्वभावेन तैलस्वभावमभिभूय क्रियमाणः प्रदीपो ज्योतिःकार्य तथा कर्मस्वभावेन जीयस्वभावमभिभूय क्रियमाणा मनुष्यादिपर्यायाः कर्मकार्यम् ॥११७।।
भूमिका- अब, जीव के, मनुष्यादि पर्यायों का क्रिया का फलपना होना व्यक्त करते हैं
अन्ययार्थ— [अथ] अब, [नामसमाख्यं कर्म] 'नाम' संज्ञावाला कर्म [स्वभावेन अपने स्वभाव से [आत्मनः स्वभाव अभिभूय] जीव के स्वभाव का पराभव करके, [नरं तिर्यञ्च नैरयिक वा सुरं) मनुष्य, तिर्यंच, नारक अथवा देव (इन पर्यायों) को [करोति] करता है।
टीका-क्रिया वास्तव में आत्मा के द्वारा प्राप्य होने से कर्म है, (अर्थात् आत्मा किया को प्राप्त करता है इसलिये वास्तव में क्रिया ही आत्मा का कर्म है।) उसके निमित्त से परिणमन (द्रव्यकर्मरूप) को प्राप्त होता हुआ पुद्गल भी कर्म है । उस (पुद्गलकर्म) की कार्यभूत मनुष्यावि पर्याय, मूलकारणभूत जीव की क्रिया से प्रवर्तमान होने से, क्रियाफल ही हैं, क्योंकि क्रिया के अभाव में पुद्गलों के कर्मत्व का अभाव होने से, उस (पुद्गल कर्म) को कार्यभूत मनुष्यादि पर्यायों का अभाव होता है । यहां, वे मनुष्यादि पर्याय कर्म के कार्य कैसे हैं ? (सो कहते हैं) क्योंकि वे (पर्याय) कर्मस्वभाव के द्वारा, जीव के स्वभाव
१. अह (ज वृ०)।