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[ पवयणसारो
निस्संसारशुजात्मनो विपरीते संसारे। संसारस्वरूपं कथयति... संसारो पुण किरिया संसारः पुनः क्रिया निष्क्रियनिर्विकल्पशुद्धात्मपरिणतेविसदृशा मनुष्यादिविभावपर्यायपरिणतिरूपा क्रिया संसारस्वरूपं । सा च कस्य भवति ? संसरमाणस्स जीवस्स विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावमुक्तात्मनो विलक्षणस्य संसरतः परिभ्रमतः संसारिजीवस्येति। ततः स्थितं मनुष्यादिपर्यायात्मकः संसार एव विनश्वरत्वे कारणमिति ॥१२०॥
एवं शुद्धात्मनो भिन्नानां कर्मजनितमनुष्यादिपर्यायाणां विनश्वरत्व कथनमुख्यतया गाथाचतुष्टयेन द्वितीयस्थलं गतम्।
उत्थानिका-आग इस विनाश स्वरूप जगत् के लिये कारण क्या है ? उसको संक्षेप में कहते हैं अथवा पहले स्थल में अधिकार सुत्र से जो यह सूचित किया था कि मनुष्यादि पर्यायें कर्मो के उदय से हुई है इससे बिनाशीक हैं इसी ही बात को तीन गाथाओं से विशेष करके व्याख्यान किया गया अब उसको सकोचते हुए कहते हैं
___ अन्वय सहित विशेपार्थ- (तम्हा दु) इसी कारण से (संसारे) इस संसार में (कोई सहावसमदिदो ति जस्थि) कोई वस्तु स्वभाव से स्थिर नहीं है । (पुण) तथा (संसरमाणस्स जीवस्स) भ्रमण करते हुए जीव द्रव्य की (क्रिया) किया (संसारो) संसार है।
जैसा पहले कह चुके हैं कि मनुष्यादि पर्याय नाशवन्त है इसी कारण से यह बात जानी जाती है कि जैसे परमानन्दमयी एक लक्षणधारी परम चैतन्य के चमत्काररूप परिणत शद्धात्म स्वभाव स्थिर है, वैसा कोई भी जीव पदार्थ इस संसार-रहित शुद्धात्मा से विपरीत संसार में अवस्थित नित्य नहीं है। तथा विशुद्ध ज्ञान-दर्शन स्वभाव के धारी मुक्तात्मा से विलक्षण संसार में भ्रमण करते हुये इस संसारी जीव की जो किया रहित और विकल्प रहित शुद्धात्मा की परिणति से विरुद्ध मनुष्यादि रूप विभावपर्याय में परिणमन रूप क्रिया है सो ही संसार का स्वरूप है । इससे यह सिद्ध हुआ कि मनुष्यादि पर्यायस्वरूप संसार ही जगत् के नाश में कारण है ॥१२०॥
इस तरह शुद्धात्मा से भिन्न कर्मों से उत्पन्न मनुष्यादि पर्याय नाशवंत हैं इस कथन की मुख्यता से चार गाथाओं के द्वारा दूसरा स्थल पूर्ण हुआ।
अथ परिणामात्म के संसारे कुतः पुद्गलश्लेषो येन तस्य मनुष्यादिपर्यायात्मकत्वमित्यत्र समाधानमुपवर्णयप्ति
आदा कम्ममलिमसो परिणामं लहदि कम्मसंजुत्तं । तत्तो सिलिसदि कम्मं तम्हा कम्मं दु' परिणामो ॥१२१॥
आत्मा कर्ममलीमसः परिणामं लभते कर्मसंयुक्तम् ।
लतः प्रिनयति कर्म तस्मात् कर्म तु परिणामः ॥१२१।। १. तु (ज० वृ०)