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[ पक्ष्यणसारो
गाथानों से सत्ता का लक्षण मुख्यता से कहा गया। फिर उत्पाद व्यय ध्रौव्य लक्षण का कहते हुये गाथा तीन, तथा द्रव्य पर्याय को कहते हुए य गुण पर्याय को कहते हुए गाथा दो, फिर द्रःय के अस्तित्व को स्थापन करते हुए पहली, पृथक्त्व लक्षणधारी अतद्भाव नाम के लक्षण को कहते हुये दूसरी, संज्ञा लक्षण प्रयोजनादि भेद रूप अतभाव को कहते हुए तोसरी, उसको ही दृढ़ करने के लिये चौथी, इस तरह गाथा चार से संत्ता ओर द्रव्य में अभेद है, इसको युक्तिपूर्वक कहा गया । इसके पीछे सत्ता गुण है, द्रव्य गुणी है ऐसा कहते हुये पहली. गुण पर्यायों का द्रव्य के साथ अभेद है ऐसा कहते हुए दूसरी ऐसी स्वततंत्र गाथायें दो हैं । फिर द्रव्य के सत् उत्पाद, असत् उत्पाद का सामान्य तथा विशेष व्याख्यान करते हुए गाथार्ये वार हैं। फिर सप्तभंगी को कहते हुए गाथा एक है, इस तरह समुदाय से चौबीस गाथाओं के द्वारा आठ स्थलों से सामान्य ज्ञेय के व्याख्यान में सामान्य द्रव्य का वर्णन पूर्ण हुआ ।
__ इसके आगे इसी ही सामान्य द्रव्य के निर्णय के मध्य में सामान्य भेद की भावना को मुख्यता करके ग्यारह गाथाओं तक व्याख्यान करते हैं । इसमें कम से पांच स्थान हैं। पहले वार्तिक के व्याख्यान के अभिप्राय से सांख्य के एकांत का खंडन है । अथवा शुद्ध निश्चयनय से फल कर्म रूप है , शुद्धात्मा का स्वरूप नहीं है ऐसी गाथा एक है । फिर इसी अधिकार सूत्र के वर्णन के लिये "कम्म णाम समक्खं" इत्यादि पाठ क्रम से चार गाथाएं इसके आगे रागादि परिणाम ही द्रव्य कर्मों के कारण हैं इसलिये भावकर्म कहे जाते हैं । इस तरह परिणाम की मुख्यता "आदा कम्म मलिमसो" इत्यादि सूत्र दो हैं । फिर कर्मफल चेतना, कर्मचेतना, ज्ञानचेतना इस तरह तीन प्रकार चेतना को कहते हुते "परिणमदि चेदणाए' इत्यादि तीन सूत्र हैं । फिर शुद्धात्मा की भेद भावना का फल कहते हुए "कत्ताकरण" इत्यादि एक सूत्र में उपसंहार है या संकोच है-इस तरह भेद भावना के अधिकार में पांच स्थल में समुदायपातनिका है।
अथ निर्धार्यमाणत्वेनोदाहरणीकृतस्य जीवस्य मनुष्यादिपर्यायाणां कियाफलत्वेनान्यत्वं द्योतयति
एसो त्ति पस्थि कोई ण णस्थि किरिया सहावणिवत्ता' । किरिया हि णस्थि अफला धम्मो जदि णिप्फलो परमो ॥११६॥
१. सभावणिवत्ता (जा वृ०)।