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पवयणसारो ]
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जाता है। शुद्ध चैतन्य यह स्वभाव है। इस तरह स्वद्रव्यादि चतुष्टय को अपेक्षा शुद्ध जीव है अथवा शुद्ध जीव में अस्तित्व स्वभाव है । यह स्यात् अस्ति एव प्रथम भंग है तथा परद्रव्य, पर- क्षेत्र, पर- काल व परभावरूप परद्रव्यादि चतुष्टय की अपेक्षा नास्तिरूप ही है । अर्थात् शुद्ध जीव में अपने सिवाय सब द्रयों के द्रव्यादि का प्रभाव है । यह "स्यात् नास्ति एवं दूसरा भंग है एक समय में हो जीव द्रव्य किती अपेक्षा से अस्तिरूप हो है व किसी अपेक्षा से नास्ति रूप ही है तथापि वचनों से एक समय में कहा नहीं जा सकता इससे अवक्तव्य हो है । यह तीसरा स्यात् अवक्तव्य एक भंग है । वह परमात्मद्रव्य स्वउमावि चतुष्य की अपेक्षा अस्ति रूप है, पर द्रव्यावि चतुष्टय की अपेक्षा नास्ति रूप है, ऐसे क्रम से कहते हुए अस्तिनास्ति स्वरूप ही है यह चौथा " स्यात् अस्तिनास्ति एव" भंग है । इस तरह प्रश्नोत्तर रूप नय विभाग से जैसे ये चार भंग हुए लंसे तीन भंग और हैं जिनको संयोगी कहते हैं। स्वद्रव्यादि चतुष्टय की अपेक्षा अस्ति हो है परन्तु एक समय में स्वaa की अपेक्षा अस्ति और परद्रव्यादि की अपेक्षा नास्ति होने पर मी अवक्तव्य है यह पांचवां भंग है । पर द्रव्यादि की अपेक्षा नास्ति रूप ही है परन्तु एक समय में स्व-परप्रत्यादि को अपेक्षा " अस्तिनास्ति" होने पर भी अववतथ्य है इससे स्यात् नास्ति एवं अवक्तव्य है यह छठा भंग है । क्रम से कहते हुए स्वद्रव्यादिकी अपेक्षा अस्ति रूप ही है तथा परप्रध्यादिकी अपेक्षा नास्ति रूप हो है तथापि एक समय में अस्तिनास्ति रूप कहा नहीं जा सकता इससे स्यात् अस्तिनास्ति एवं अवक्तव्य रूप है, यह सातवां भंग है । पहले पंचास्तिकाय ग्रन्थ में स्यात् अस्ति इत्यादि प्रमाण वाक्य से प्रमाण सप्तभंगी का व्याख्यान किया गया, यहाँ "स्यात् अस्ति एव' के द्वारा जो "एव" का ग्रहण किया गया है वह नय-सप्तभंगी के बताने के लिये किया गया है। जैसे यहाँ शुद्ध आत्मद्रव्य में सप्तभंगी नयका व्याख्यान किया गया जैसे यथासंभव सब पदार्थों में जान लेना चाहिये ॥ ११५ ॥
नोट – इस तरह सप्तभंगी के व्याख्यान की गाथा के द्वारा आठवां स्थल पूर्ण हुआ ।
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इस तरह जैसा पहले कह चुके हैं पहले एक नमस्कार गाथा कही, फिर द्रव्य गुण पर्याय को कथन करते हुए दूसरी कही, फिर स्वसमय को दिखलाते हुए तीसरी, फिर द्रव्य के सत्ता आदि तीन लक्षण होते हैं इसकी सूचना करते हुए चौथी, इस तरह स्वतन्त्र गाथा चार से पीठिका कही । इसके पीछे अवान्तर सत्ता को कहते हुए पहली, महासत्ता को कहते दूसरी, जैसा द्रव्य स्वभाव से सिद्ध है वैसे सत्ता गुण भी है ऐसा कहते हुए तीसरी, उत्पाद व्यय व्यपना होते हुए भी सत्ता ही द्रव्य हैं ऐसा कहते हुए चौथी, इस तरह चार