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पत्रमणसारो ] होगा। यह परिणमन स्वभाव जीय विकार रहित शुद्धोपयोग से विलक्षण शुभ या अशुभ उपयोग से परिणमन करके मनुष्य, वेब, पशु या नारकी अथवा निर्विकार शुद्धोपयोग में परिणमन करके सिद्ध हो जावेगा। इस प्रकार होकर के भी अथवा वर्तमान काल में होता हुमा भाविकाल में होगा व भूतकाल में हुआ था इस तरह तीनों कालों में पर्यायों को बदलता हुआ भी क्या अपने द्रव्यांप को छोड़ पैसा है? प्रमापिका से द्रव्यपने को कभी नहीं छोड़ता है तब अपनी अनेक भिन्न-भिन्न पर्यायों में दूसरा कैसे हो सकता है ? अर्थात् दूसरा नहीं होता किन्तु द्रव्य को अन्वयरूपशक्ति से सद्भाव उत्पाद रूप वही अपने द्रव्य से अभिन्न है, यह भावार्थ है ॥११२॥
अथासवुत्पादमन्यत्वेन निश्चिनोतिमणुवो ण होदि' देवो देवो वा माणुसो व सिद्धो वा । एवं अहोज्जमाणो अणण्णभावं कधं लहदि ॥११३॥ ___मनुजो न भवति देवो देवो वा मानुषो वा सिद्धो बा।
एवमभवन्ननन्यभावं कथं लभते ।। ११३॥ पर्याया हि पर्यायभूताया आत्मन्यतिरेकव्यक्तः काल एव सत्त्वात्ततोऽन्यकालेषु भवत्यसन्स एव । यश्च पर्यायाणां ब्रव्यत्वभूतयान्वयशक्त्यानुस्यूतः क्रमानुपाती स्वकाले प्रादुभविः तस्मिन्पर्यायभूताया आत्मव्यतिरेकच्यक्तेः पूर्वमसत्त्वात्पर्याया अन्य एव। ततः पर्यायाणामन्यत्वेन निश्चीयते पर्यायस्वरूपकर्तृ करणाधिकरणभूतत्वेन पर्यायेभ्योऽपृथग्भूतस्य सल्पस्यासदुत्पादः । तथाहि न हि मनुजस्त्रिदशो या सिद्धो वा स्यात् न हि त्रिदशो अनुजो वा सिद्धो वा स्यात् । एवमसन् कथमनन्यो नाम स्यात् येनान्य एव न स्यात् । येन व निष्पद्यमानमनुजादिपर्यायं जायमानक्लयादिविकारं काञ्चनमिव जीवद्रव्यमपि प्रतिसामन्यन्न स्यात् ॥११३॥
भूमिका-अब, असत्-उत्पाद को अन्यत्व के द्वारा निश्चित करते हैं* अन्वयार्थ-~-[मनुजः] मनुष्य [देवः न भवति] देव नहीं है, [बा] अथवा [देवः]
भानुषः वा सिद्धः वा] मनुष्य या सिद्ध नहीं है, [एवं अभवन् ] इस प्रकार (मनुष्य, मादिक या देव, मनुष्यादिक) न होता हुआ [अनन्यभावं कथं लभते] अनन्यभाव को प्राप्त हो सकता है ?
१. मणुओ ग हबदि (ज० वृ०)। २. कहं (ज० वृ०) ।
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