________________
२७२ ]
[ पवयणसारो
अथ सत्ताद्रव्ययोर्गुणगुणिभावं साधयति
जो खलु दव्वसहावो' परिणामो सो गुणो सदविसिट्ठी । सहावे चव्व त्ति जिणोवदेसोयं ॥ १०६ ॥
सदट्ठवं
यः खलु द्रव्यस्वभावः परिणामः स गुणः सदविशिष्टः । सदवस्थित स्वभावे द्रव्यमिति जिनोपदेशोंऽयम् ||१६||
द्रथ्यं हि स्वभावे नित्यमवतिष्ठमानत्वात्सदिति प्राक् प्रतिपादितम् । स्वभावस्तु द्रव्यस्य परिणामोऽभिहितः । य एव द्रव्यस्य स्वभावभूतः परिणामः, स एव सदविशिष्टो गुण इतीह साध्यते । यदेव हि द्रव्यस्वरूपवृत्तिभूतमस्तित्वं द्रव्यप्रधाननिर्देशात्सविति संशब्यते तदविशिष्टगुणभूत एवं द्रव्यस्य स्वभावभूतः परिणामः द्रव्यवृतेहि त्रिकोटिसमयस्पशिन्याः प्रतिक्षणं तेन तेन स्वभावेन परिणमना द्रव्यस्वभावभूत एव तावत्परिणामः । स त्वस्तित्वभूतद्रभ्यवृत्त्यात्मकल्पात्तदविशिष्टये क्ररविधानको गुण एवेति सत्ताम्रध्ययोनुंणगुणिभावः सिद्धयति ॥ १०६ ॥
भूमिका – अब, सत्ता और द्रव्य का गुण-गुणित्व सिद्ध करते हैं-
अन्वयार्थ --- [ यः खलु | जो वास्तव में [ द्रव्यस्वभावः परिणामः ] द्रव्य का स्वभाव भूत ( उत्पादव्ययप्रौत्र्यात्मक ) परिणाम है [ सः ] वह [ सदविशिष्टः गुणः ] 'सत्' से अविशिष्ट ( सत्ता से अभिन्न) गुण है । [ स्वभावे अवस्थितं ] 'स्वभाव में अवस्थित ( होने से ) [ द्रव्यं ] द्रव्य [सत् ] सत् है - [इति अयं जिनोपदेश: ] ऐसा यह जिनेन्द्र भगवान का उपदेश है ।
टीका - द्रव्य, स्वभाव में नित्य अवस्थित होने से, सत् है, ऐसा पहले (६६वीं गाथा में ) प्रतिपादित किया गया है, और ( वहां ) स्वभाव तो द्रव्य का परिणाम कहा गया है। यहां यह सिद्ध किया जा रहा है कि जो हो द्रव्य का स्वभावभूत परिणाम हैं यह हो 'सत्' से अविशिष्ट ( अस्तित्व से अभिन्न), गुण है ।
जो थ्य के स्वरूप का वृत्तिभूत अस्तित्व द्रव्यप्रधान कथन के द्वारा 'सत्' शब्द से कहा जाता है, उससे अविशिष्ट (उस अस्तित्व से अनन्य ) गुणभूत हो द्रव्य स्वभावभूत परिणाम है, क्योंकि द्रव्य की वृत्ति (अस्तित्व) तीन प्रकार के समय को ( भूत, भविष्यत, वर्तमान काल को ) स्पर्शित करती है, (और) प्रतिक्षण उस स्वभावरूप परिणमन करने के कारण द्रव्य का स्वभावभूत परिणाम है। और वह ( उत्पादन्ध्यय-प्रौव्यात्मक परिणाम )
१. दव्वसहाओ (ज० वृ० ) 1